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________________ यथा च किम्पाकफलानि मनोरमाणि, रसेन वर्णेन च भुज्यमानानि । तानि क्षोदयन्ति जीवितं पच्यमानानि, एतदुपमाः कामगुणा विपाके ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः - जहा - जैसे, किंपागफला-किंपाकफल, मणोरमा- मन को आनन्द देने वाले, रसेण-रसं से, वण्णेण-वर्ण से, य-और गन्धादि से, भुज्जमाणा - खाए हुए - परन्तु, ते - वे, खुड्डए - विनाश कर देते हैं, जीविय-जीवन का, पच्चमाणा - परिणत होते हुए, एओवमा-यही उपमा, विवागे-विपाक में अर्थात् परिणाम में, कामगुणा - कामगुणों की है। मूलार्थ - जैसे किंपाक - वृक्ष के रस और वर्णादि से युक्त सुन्दर फल खाने के अनन्तर जीवन का विनाश कर देते हैं, इसी प्रकार विपाक में काम-भोगादि को भी जानना चाहिए। टीका-जैसे किंपाक-वृक्ष के फल देखने में सुन्दर और रस में मधुर तथा खाने में स्वादु और सुगन्धियुक्त होते हैं, परन्तु भक्षण करने के अनन्तर वे प्राणों का हरण कर लेते हैं, इसी प्रकार कामभोगादि विषय भोगकाल में तो सुखप्रद होते हैं, परन्तु परिणाम में वे दुःखप्रद हुआ करते हैं, अर्थात् नरकादि गतियों में ले जाकर महान् कष्ट के देने वाले होते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे किंपाकफल देखने में सुन्दर और खाने में मधुर होता हुआ भी प्राणों का संहारक होता है, उसी भांति काम भोगादि विषय भी आरम्भ में सुख देने वाले प्रतीत होते हैं, किन्तु परिणाम में ये अत्यन्त कष्ट देने वाले हैं, अतः सुख के साधन अथवा सुखरूप नहीं हो सकते। इस प्रकार राग के विषय में हेयोपादेय का विचार करने के अनन्तर अब राग और द्वेष दोनों के विषय में कहते हैं, यथा जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न यामणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ २१ ॥ ये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञा:, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि । न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, इंदियाणं - इन्द्रियों के, विसया - विषय, मणुन्ना-मनोज्ञ हैं, तेसु-उनमें, भावं-रागभाव, कयाइ–कदाचित्, न निसिरे- न करे, य-और, अमणुन्नेसु-अमनोज्ञ विषयों में, मणं पि-मन से भी द्वेष, न कुज्जा-न करे, समाहिकामे - समाधि की इच्छा रखने वाला, समणे - श्रमण, तवस्सी - तपस्वी । मूलार्थ - समाधि की इच्छा रखने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं उनमें रागभाव कदापि न करे और जो अमनोज्ञ विषय हैं उनमें मन से भी द्वेष न करे । टीका - प्रस्तुत गाथा में पांचों इन्द्रियों के शब्दादि मनोहर विषयों में राग और अमनोहर विषयों में द्वेष, इन दोनों का ही त्याग करना बताया गया है। कारण यह है कि इनके त्याग के बिना तपस्वी साधु उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२३१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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