SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले संसार-भीरु और धर्म में स्थित रहने वाले पुरुषों के लिए भी इस लोक में इतना कठिन और कोई काम नहीं जितना कि बालजीवों के मन को हरने वाली स्त्रियों का त्याग करना कठिन है। टीका-इस गाथा में अल्प सत्त्व वाले साधकों के लिए स्त्रियों का त्याग करना अत्यन्त कठिन है, इस विषय की चर्चा की गई है। जो आत्माएं मुक्ति की इच्छा रखने वाली हैं, चार गतिरूप संसार-भ्रमण से छूटने की अभिलाषा रखने वाली हैं और श्रुतादि धर्मों में सदा स्थिति करने वाली हैं, उनके लिए भी स्त्री-त्याग के समान जगत में कोई दुस्तर कार्य नहीं है। तात्पर्य यह है कि जैसे अन्य पदार्थ सुख पूर्वक त्यागे जा सकते हैं वैसे बाल-जीवों के मन को हरने वाली स्त्रियों का त्याग करना सुकर नहीं, किन्तु अत्यन्त कठिन है। बाल-जीवों अर्थात् निर्विवेकी जनों के मन को हर लेने की शक्ति रखने के कारण स्त्रियों को बालमनोहरा कहा गया है। स्त्री-संग के त्याग से किस गुण की प्राप्ति होती है, अब इस विषय में कहते हैं एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहत्तरा चेव भवंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १८ ॥ एतांश्च सङ्गान् समतिक्रम्य, सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः । यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-एए-यह पूर्वोक्त, य-स्त्री आदि के, संगे-संग को, समइक्कमित्ता-समतिक्रम करके, सेसा-शेष पदार्थ, सुहुत्तरा-सुखोत्तर, भवंति-हो जाते हैं, च-एव-प्राग्वत्, जहा-जैसे, महासागरं-महासागर को, उत्तरित्ता-तैरकर, नई-नदी सुखोत्तर, भवे-हो जाती है, अवि-संभावना में है, गंगासमाणा-गंगा के समान। ___ मूलार्थ-इस पूर्वोक्त स्त्री-प्रसंग का उल्लंघन करके शेष पदार्थ ऐसे सुखोत्तर हो जाते हैं, जैसे महासागर को तैर कर गंगा समान नदियां सुखोत्तर अर्थात् सुख से पार करने योग्य हो जाती हैं। .. टीका-इस गाथा में इस बात का वर्णन किया गया है कि जैसे स्वयंभू-रमण समुद्र का तैरना अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार स्त्रियों के संग का परित्याग करना भी नितान्त कठिन है। अतः जिन महात्माओं ने स्त्रियों के संग को छोड़ दिया है उनके लिए अन्य द्रव्यादिक पदार्थों को छोड़ना कोई दुस्तर कार्य नहीं रह जाता। कारण यह है कि स्त्रियां अत्यन्त राग का कारणभूत मानी गई हैं, जब इन्हीं का परित्याग कर दिया तब अन्य पदार्थों का परित्याग तो सुकर ही हो जाता है। जिस आत्मा ने अपनी १. इसी भाव से मिलती-जुलती एक गाथा सूत्रकृतांगसूत्र में भी आती है। यथा जहा नई वेयरणी, दुत्तरा इह संमया। एवं लोगसि नारीओ दुत्तरा अमईमया ॥ [अध्या० ३ उद्दे० ३ गा. १६] उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy