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________________ टीका-गुरु, शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे शिष्य ! राग-द्वेष और मोह को दूर करने की कामना वाले जीव के लिए जो-जो उपाय हैं, उनको मैं अनुक्रम से तुम्हारे प्रति कहता हूं। तात्पर्य यह है कि जैसे कोई वैद्य किसी औषधि को मूल से उखाड़ डालता है, ठीक उसी प्रकार तीव्र कषायोदय के साथ जो मोह की प्रकृतियों का समूह है, उसका समूल-घात करने के लिए जो-जो उपाय शास्त्रकारों ने बताए हैं, उनको मैं तुम्हारे प्रति क्रमपूर्वक कहता हूं। अब उपायों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार कहते हैंरसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ १० ॥ रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः, प्रायः रसा दीप्तिकरा नराणाम् । दीप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-पगाम-अति, रसा-रसों का, न निसेवियव्वा-सेवन नहीं करना चाहिए, पायं-प्रायः, रसा-रस, दित्तिकरा-दीप्त करने वाले हैं, नराणं-नरों को, च-फिर, दित्तं-दीप्त को, कामा-कामादि, समभिद्दवंति-पराभव करते हैं, दुःख देते हैं, जहा-जैसे, साउफलं-स्वादु फल वाले, दुम-द्रुम-वृक्ष को, पक्खी -पक्षी पराभव करते हैं, व-तद्वत्। ___मूलार्थ-रसों का अत्यन्त सेवन नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि रस प्रायः मनुष्यों को दीप्त करते हैं और दीप्त जीवों को कामादि विषय दुःख देते हैं। जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षीगण दुःखी करते हैं-कष्ट देते हैं तद्वत्। टीका-प्रस्तुत गाथा में मोह को दूर करने के उपायों का वर्णन किया है। उनमें प्रथम रससेवन के विषय में कहते हैं अर्थात् क्षीर प्रभृति रसों का अत्यन्त सेवन नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि रसयुक्त पदार्थों का अत्यन्त सेवन करने से इन्द्रियां प्रदीप्त होती हैं। तात्पर्य यह है कि रसों के सेवन से धातु आदि की पुष्टि होने पर कामाग्नि प्रचंड हो उठती है। प्रचण्ड हुई कामाग्नि जीवों का विषयों के द्वारा पराभव कराती है-इसलिए कामवर्द्धक रसादि पदार्थों का त्याग करना ही कल्याणप्रद है। इस विषय को समझाने के लिए वृक्ष और पक्षी का दृष्टान्त दिया गया है। जैसे स्वादु फल वाले वृक्ष पर पक्षी आकर बैठते हैं और अनेक प्रकार से उसको कष्ट पहुंचाते हैं, उसी प्रकार रससेवी पुरुष को कामादि विषय भी अत्यन्त दु:खी करते हैं, यहां पर द्रुम के समान तो मनुष्य है और पक्षीगण के समान कामादि विषय हैं तथा स्वादु फल के समान दीप्त भाव हैं। गाथा में 'प्रायः' शब्द इसलिए दिया गया है कि किसी-किसी महान सत्त्व वाले जीव को ये रसादि पदार्थ दीप्त नहीं भी कर सकते। इसके अतिरिक्त इतना और भी स्मरण रहे कि यह उत्सर्ग सूत्र है। अपवाद में तो किसी वातादिदोषविशेष के शमनार्थ रसादि पदार्थों का सेवन भी करना अनावश्यक नहीं है, तब सिद्धान्त यह निकला कि अल्प सत्त्व वाले जीवों को बिना कारण क्षीरादि विकृतियों का सेवन नहीं करना चाहिए इत्यादि। अब सामान्यरूप से प्रकाम भोजन के दोष बताते हैं, तथा- . उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २२३] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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