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________________ अह पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं । अथ प्रमादस्थानं द्वात्रिंशत्तममध्ययनम् पूर्व अध्ययन में अनेक प्रकार से चरण-विधि का निरूपण किया गया है, परन्तु चारित्रविधि का यथावत् पालन करने के लिए प्रमाद के त्याग की आवश्यकता है, अतः इस बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद के त्याग का उपदेश दिया गया है। प्रमाद द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है। मदिरा आदि पदार्थों का सेवन द्रव्य-प्रमाद है और निद्रा, विकथा और कषाय-विषयादि भावप्रमाद हैं। प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य प्रमाद का त्याग करने के अनन्तर भाव से प्रमाद के त्याग का वर्णन किया गया है। जैसे श्री ऋषभदेव और वर्द्धमान स्वामी ने प्रमाद का त्याग किया उसी प्रकार सर्व प्राणियों को प्रमाद का त्याग करना चाहिए। यद्यपि अप्रमत्त-गुणस्थान की स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त्तमात्र है, तथापि अन्तःकरण के संकल्पों से अप्रमत्तभाव की अनेक बार प्राप्ति हो सकती है। प्रमाद के कारण यह प्राणी अनन्त संसार-चक्र में निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है, इसलिए प्रमाद सर्वथा त्याज्य है। अब शास्त्रकार निम्नलिखित गाथाओं के द्वारा इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - अच्चंतकालस्स समूलगस्स, सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो । तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता, सुणेह एगंतहियं हियत्थं ॥ १ ॥ अत्यन्तकालस्य समूलकस्य, सर्वस्य दुःखस्य तु यः प्रमोक्षः । तं भाषमाणस्य मम प्रतिपूर्णचित्ताः, श्रृणुतैकान्तहितं हितार्थम् ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः-अच्चंत-अत्यंत, कालस्स-काल, समूलगस्स-मिथ्यात्वादि से संयुक्त, सव्वस्स-सर्व, दुक्खस्स-दुःख के, जो-जो, पमोक्खो -प्रमोक्ष का हेतु, तं-उसको, भासओ-भाषण करते हुए, मे-मुझ से, एगंत-एकान्त, हियं-हितकर, हियत्थं मोक्ष के अर्थ को, सुणेह-सुनो, पडिपुण्णचित्ता-प्रतिपूर्ण चित्त होकर, उ-निश्चय अर्थ में है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २१६] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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