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________________ छेदन करना, ५. जो पुरुष द्वीप के समान सब का रक्षक है उसको मारना, ६. साधारण अन्न-पानी से रोगी की सेवा न करना, ७. किसी को धर्म से भ्रष्ट करना, ८. न्याययुक्त मार्ग का नाश करना, ९. जिनेन्द्र, आचार्य और उपाध्याय आदि की अवमानना करना, १०. अनन्त ज्ञानियों की उपासना का त्याग करना, ११. पुनः पुनः क्लेश उत्पन्न करना, १२. तीर्थ का भेद करना, १३. अधर्म में पुनः पुनः प्रवृत्ति करना, १४. विषय-विकारों का त्याग करके फिर उनकी इच्छा करना अर्थात् इहलोक तथा परलोक के कामभोगों की इच्छा करना, १५. अपने आपको बहुश्रुत मानना, १६. तपस्वी न होने पर अपने आपको तपस्वी सिद्ध करना, १७. अग्नि के धूम से जीवों को मारना, १८. स्वयं पाप करके उसको दूसरे के सिर लगाना, १९. छल आदि क्रियाएं विशेष रूप से करना, २०. सर्व प्रकार से असत्य बोलना, २१. सदा क्लेश करते रहना, २२. मार्ग में लोगों को लूटना, २३. विश्वास देकर दूसरे की स्त्री से कुकर्म करना, २४. आबाल ब्रह्मचारी न होने पर आबाल ब्रह्मचारी कहलाना, २५. अब्रह्मचारी होने पर ब्रह्मचारी कहलाना, २६. अपने को अनाथ से सनाथ बनाने वाले स्वामी के ही धन का नाश करना, २७. स्वामी के प्रभाव में अन्तराय डालना, २८. सेनापति, शासक, राष्ट्रपति और ग्रामनायक आदि का विनाश करना, २९. देवता के पास न आने पर भी ऐसा कहना कि मेरे पास देवता आता है, ३०. देवता का अवर्णवाद बोलना इत्यादि मोहनीय के स्थान हैं। इनके द्वारा यह जीव अनेक प्रकार के विकट कर्मों का बन्ध करता है। सारांश यह है कि जो भिक्षु उक्त २९ प्रकार के पापश्रुत-प्रसंग में और तीस प्रकार के मोहस्थान में पूर्णतया विवेक से काम लेता है, अर्थात् इनके परिहार में सदा उद्यत रहता है उसका इस संसार में परिभ्रमण नहीं होता। पापश्रुत के द्वारा पापकर्म के उपार्जन करने की अधिक सम्भावना रहती है और मोहनीय कर्म के प्रभाव से निर्दयता और कृतघ्नता आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिए इनके त्याग में उद्यत रहना चाहिए। अब फिर इसी विषय में कहते हैं - सिद्धाइगुणजोगेसु, तेत्तीसासायणासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ २० ॥ सिद्धादिगुणयोगेषु, त्रयस्त्रिंशदाशातनासु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः-सिद्धाइ-सिद्ध के आदि समय में जो, गुण-गुण हैं तथा सिद्धों के अतिशय-रूप गुण, वा, जोगेसु-योगसंग्रहों में, य-और, तेत्तीस-तेतीस, आसायणासु-आशातनाओं में, जे भिक्खू-जो साधु, निच्चं-सदैव, जयई-यत्न करता है, से-वह, न अच्छइ मंडले-नहीं ठहरता संसार में। मूलार्थ-सिद्धों के अतिशयरूप गुणों में, योगसंग्रहों में तथा ३३ प्रकार की आशातनाओं में, जो भिक्षु सदैव यत्न रखता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २१२] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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