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________________ . क्रियासु भूतग्रामेषु, परमाधार्मिकेषु च । - . यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-किरियास-क्रियाओं में, भूयगामेस-भूतग्रामों में, य-और, परमाहम्मिएसु-परमाधार्मिकों में, जे-जो, भिक्खू-साधु, निच्चं-सदैव, जयई-यत्न करता है, से न अच्छं। मंडले-वह संसार में नहीं ठहरता। .. मूलार्थ-तेरह प्रकार की क्रियास्थानों में, चौदह प्रकार के भूतसमुदायों में और पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक देवों में जो भिक्षु सदैव यत्न अर्थात् विवेक रखता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता। ___टीका-१. अर्थदण्ड, २. अनर्थदण्ड, ३. हिंसादण्ड, ४. अकस्मात्-दण्ड, ५. दृष्टिविपर्यास, ६. मृषावाद, ७. अदत्तादान, ८. अध्यात्मवर्तिकी, ९. मान, १०. मित्रद्वेषप्रत्ययिकी, ११. माया, १२. लोभ और १३. ईर्यापथिकी, ये १३ क्रियास्थान कहलाते हैं। इनके द्वारा कर्मों का बन्ध होता है, परन्तु प्रथम और बारहवें क्रियास्थान से संसार की वृद्धि होती है तथा तेरहवें क्रियास्थान के सेवन से केवल-ज्ञान की उत्पत्ति होती है। जो प्रथम थे, अब हैं और आगे को होंगे, उनको भूत कहते हैं। उनका समुदाय भूतग्राम कहलाता है। उसके १४ भेद हैं। यथा-१. सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त, २. सूक्ष्म-एकेन्द्रिय-पर्याप्त, ३. बादर-एकेन्द्रिय-अपर्याप्त, ४. बादर-एकेन्द्रिय-पर्याप्त, ५. द्वीन्द्रिय-अपर्याप्त, ६. द्वीन्द्रिय-पर्याप्त, ७. त्रीन्द्रिय-अपर्याप्त, ८. त्रीन्द्रिय-पर्याप्त, ९. चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्त, १०. चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त, ११. असंज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-अपर्याप्त, १२. असंज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-पर्याप्त, १३. संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-अपर्याप्त और १४. संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-पर्याप्त। इन सब प्रकार के प्राणियों की रक्षा करने में यत्न करना चाहिए। इसी प्रकार नरक के अधिवासी परमाधार्मिक देव हैं। उनके १५ भेद इस प्रकार हैं-१. आम्र, २. आम्ररस, ३. शाम, ४. सबल, ५. रौद्र, ६. वैरौद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ९. असिपत्र, १०. धनुष, ११. कुम्भ, १२. बालुक, १३. वैतरणी, १४. खरस्वर और १५. महाघोष-ये १५ प्रकार के असुरकुमार देव विशेष हैं जो कि नारकी जीवों को नाना प्रकार के कष्टों से पीड़ित करते हैं। इनके विषय में जो भिक्षु सदा सचेत रहता है तथा पूर्वोक्त क्रियाओं और भूतसमुदाय के सम्बन्ध में जो पूर्ण विवेक रखता है, उसका संसारभ्रमण दूर हो जाता है। यही इस गाथा का तात्पर्य है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं - .... गाहासोलसएहि, तहा असंजमम्मि य । . जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १३ ॥ गाथाषोडशकेषु, तथाऽसंयमे च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १३ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २०५] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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