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________________ भेद से छः प्रकार की कही गई हैं। यथा-१. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या। इनमें प्रथम की तीन लेश्याएं त्याज्य हैं और उत्तर की तीन धारण करने के योग्य हैं। पृथिवी आदि छः प्रकार के काय की रक्षा में प्रयत्नशील रहना चाहिए। १. पृथ्वीकाय, २. जलकाय, ३. तेज-काय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय और ६. त्रसकाय, से षट्-काय के नाम से प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत सूत्र के २६वें अध्ययन में जो आहार के ६ कारण बताए गए हैं अर्थात् अमुक ६ कारणों से आहार लेना और अमुक ६ कारणों के उपस्थित होने पर आहार न लेना इत्यादि जो आहार के ६ कारण हैं, उनमें यत्न अर्थात् विवेक रखना आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि कृष्णादि लेश्याओं, पृथ्वी आदि कायों और आहार के कारणों में हेयोपादेय का विचार करके जो साधु संयम का आराधन करता है, वह संसार के आवागमन से छूट जाता है। जिस समय इस जीव में उत्तर की तीनों लेश्याएं वर्तेगी, उस समय षट्काय का संरक्षण भी भली-भांति हो सकेगा और शुभलेश्या तथा कायरक्षा से इस जीव को आहार के ग्रहण और त्याग का बोध भी यथार्थरूप से हो जाएगा, इसलिए उक्त विषय में भिक्षु को यत्न-पूर्वक ही व्यवहार करना चाहिए। अब फिर कहते हैं - पिंडोग्गहपडिमासु, भयट्ठाणेसु सत्तसुः । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ९ ॥ पिण्डावग्रहप्रतिमासु, भयस्थानेषु सप्तसु । यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ ९ ॥ पदार्थान्वयः-पिंडोग्गह-आहार के अवग्रह-ग्रहण करने के, पडिमासु-प्रतिमाओं में, सत्तसु-सात, भयट्ठाणेसु-भयस्थानों में, जे-जो, भिक्खू-भिक्षु निच्चं-सदैव, जयई-यत्न रखता है, से-वह, मंडले-संसार में, न अच्छइ-नहीं ठहरता। मूलार्थ-सात पिंडावग्रह-प्रतिमाओं के पालन में और सात भयस्थानों को दूर करने में जो भिक्षु सदैव यत्न रखता है, वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। टीका-इस गाथा में सात अंकों से चारित्रविधि का वर्णन किया गया है। पिंड का अर्थ है आहार। उसके ग्रहण करने की सात प्रतिमाएं अर्थात् प्रतिज्ञाएं हैं। यथा-१. संसृष्ट, २. असंसृष्ट, ३. उद्धृत, ४. अल्पलेय, ५. विकाररहित, ६. उपगृहीत-प्रगृहीत और ७. उज्झित। तात्पर्य यह है कि इन प्रतिज्ञाओं के अनुसार जो आहार की गवेषणा करता है तथा भय के सात स्थानों को दूर करने में जो सावधान रहता है, वह साधु जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। ___ सात भय निम्नलिखित हैं-१. इहलोकभय, २. परलोकभय, ३. धननाशभय, ४. अकस्मात्भय, ५. आजीविकाभय, ६. अपयशभय और ७. मृत्युभय, ये सात भयस्थान कहे जाते हैं। तथा, स्वजाति का भय उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २०२] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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