SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थान्वयः-एगंतं-एकान्त में, अणावाए-अनापात में, इत्थी-स्त्री, पसु-पशु, विवज्जिए-विवर्जित स्थान में, सयणासण-शयनाशन का, सेवणया-सेवन करना, विवित्तसयणासणं-विविक्त-शयनासनतप है। मूलार्थ-एकान्त और जहां पर कोई न आता-जाता हो ऐसे स्त्री, पशु और (उपलक्षण से) नपुंसकरहित स्थान में शयन और आसन करने को विविक्तशयनासन अर्थात् प्रतिसंलीनता-तप कहते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में प्रतिसंलीनता-तप का स्वरूप बताया गया है। इसी का दूसरा नाम विविक्तशय्या वा विविक्तशयनासन भी है। संयमशील मुनि के लिए उचित है कि वह इस प्रकार के स्थान अर्थात् वसती एवं उपाश्रय आदि में निवास करने का विचार रखे कि जो एकान्त अर्थात् जनता से आकीर्ण न हो तथा जिस स्थान पर स्त्री आदि की दृष्टि न पडे और वह स्थान स्त्री, पश और नपंसक आदि से रहित हो। इस प्रकार के स्थान में रहना और सोना प्रतिसंलीनता है। उक्त प्रकार के स्थान में रहने से समाधि और ध्यान में विशेष कठिनाई नहीं आ पाती। शास्त्रों में इस तप के अन्तर्गत इन्द्रिय-कषाय और योगों के अशुभ व्यापार का निरोध भी प्रतिपादन किया गया है। यदि दूसरे शब्दों में व्यक्तरूप से कहें तो पांचों इन्द्रियों, चारों कषायों और तीनों योगों का प्रमाण से अधिक धारण न करना प्रतिसंलीनता-तप है। यहां जिस बाह्य तप का संक्षेप से निरूपण किया गया है उसका विशेष विस्तार औपपातिक-सूत्र से जानना चाहिए। ___अब उक्त प्रकरण का उपसंहार और उत्तर प्रकरण का उपक्रम करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - एसो बाहिरगं तवो, समासेण वियाहिओ । अब्भितरं तवं एत्तो, वुच्छामि अणुपुव्वसो ॥ २९ ॥ एतद् बाह्यं तपः, समासेन व्याख्यातम् । आभ्यन्तरं तप इतः, वक्ष्येऽनुपूर्वशः ॥ २९ ॥ पदार्थान्वयः-एसो-यह, बाहिरगं-बाह्य, तवो-तप, समासेण-संक्षेप से, वियाहिओ-वर्णन किया है, अभितरं-आभ्यन्तर, तवं-तप, एत्तो-इसके आगे, वुच्छामि-कहूंगा, अणुपुव्वसोअनुक्रम से। ___मूलार्थ-यह बाह्य तप संक्षेप से वर्णन किया गया। अब इसके आगे अनुक्रम से मैं आभ्यन्तर तप को कहूंगा। टीका-प्रस्तुत गाथा में बाह्य तप का उपसंहार और आभ्यन्तर तप का उपक्रम अर्थात् वर्णन करने की सूचना दी गई है। सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! यह बाह्य तप का संक्षेप से मैंने वर्णन कर दिया है, अब मैं अनुक्रम से आभ्यन्तर-तप के विषय में कहता हूं। जिस उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९०] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं .
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy