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________________ स्वल्प काल में 'अ इ उ ऋ ल' इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय तक शैलेशी अवस्था में रहकर वह आत्मा, अनगार समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तिनामक शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ भेद को ध्याती हुई चारों अघाति कर्मों की प्रकृतियों को एक ही समय में क्षय कर देती है। यहां पर इतना और स्मरण रहे कि शुक्ल-ध्यान के चार भेद हैं। यथा-१. पृथक्त्ववितर्कसविचार २. एकत्ववितर्कनिर्विचार ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ४. समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति। इनमें प्रथम के दो भेद तो सालम्बन अर्थात् आलम्बन-सहित हैं, कारण यह है कि इनके लिए श्रुतज्ञान का आलम्बन रहता है और अन्त के दोनों भेद निरालम्बन अर्थात् आलम्बन से रहित हैं, अर्थात् इन दोनों में किसी प्रकार के भी श्रुतज्ञान का आलम्बन नहीं होता। प्रथम के दो भेद पूर्वधरों में होते हैं और अन्त के दोनों केवलियों में हुआ करते हैं। (१) वितर्क-श्रुतज्ञान-सहित अर्थात् श्रुत के आधार से जो भेद-प्रधान चिन्तन होता है उसे पृथक्त्व-वितर्क-सविचार कहते हैं। (२) इसी प्रकार श्रुतज्ञानानुसारी अभेद-प्रधान चिन्तन को एकत्व-वितर्कनिर्विचार कहते हैं। (३) जिस में सूक्ष्म शरीरयोग के द्वारा मन, वचन और काया के योगों का निरोध किया जाता है, ऐसा अप्रतिपाति अर्थात् पतनशून्य [जिसमें से फिर पतन होने की सम्भावना नहीं रहती] जो ध्यान होता है उसको सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती कहा गया है, कारण यह है कि इसमें केवल शरीर की श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही शेष रह जाती है। (४) जिसमें स्थूल अथवा सूक्ष्म किसी प्रकार की मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रिया शेष नहीं रह जाती, अर्थात् किसी प्रकर की भी क्रिया के न होने से जहां आत्म-प्रदेशों में सर्वथा अकम्पनता अर्थात् निश्चलता होती है, इस प्रकार की कभी न जाने वाली स्थिति को समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति कहते हैं। इस ध्यान के प्रभाव से यह आत्मा सर्व कर्मों का आत्यन्तिक क्षय करती हुई परम निर्वाणपद को प्राप्त कर लेती है। अब वेदनीयादि कर्मों के क्षय होने के अनन्तर की अवस्था का वर्णन करते हैं - तओ ओरालिय-तेयकम्माइं सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता, उज्जुसेढिपत्ते अफसमाणगई, उड्ढं, एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ, बुज्झइ, जाव अंतं करेइ ॥ ७३ ॥ ___तत औदारिकतेजःकर्माणि सर्वाभिर्विप्रहाणिभिस्त्यक्त्वा ऋजुश्रेणिं प्राप्तोऽस्पर्शद्गतिरूर्ध्वमेकसमयेनाविग्रहेण तत्र गत्वा साकारोपयुक्तः सिध्यति, बुध्यते, यावदन्तं करोति ॥ ७३ ॥ पदार्थान्वयः-तओ-तदनन्तर, ओरालिय-औदारिक, तेय-तैजस, कम्माई-कार्मण शरीर को, सव्वाहि-सर्व, विप्पजहणाहि-त्याग से, विप्पजहित्ता-छोड़कर, उज्जुसेढिपत्ते-ऋजु श्रेणी को प्राप्त हुआ, अफुसमाणगई-अस्पर्शमानगति, उड्ढं-ऊंचा, एगसमएणं-एक समय में, अविग्गहेणं-अविग्रहगति ___ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१६८] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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