SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होकर, अट्ठ-आठ, मयट्ठाणाई-मदस्थानों को, निट्ठावेइ-विनाश कर देता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! मार्दव-मृदुभाव से जीव किस गुण का उपार्जन करता है? ____ उत्तर-मार्दव से जीव अनुत्सुकता का उपार्जन करता है। अनुत्सुकता से मृदुमार्दव-सम्पन्न जीव मद के आठ स्थानों का क्षय कर देता है। टीका-शिष्य पूछता है कि जो जीव मृदु अर्थात् द्रव्य और भाव से कोमल-स्वभाव वाला है उसको क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि मृदुता से इस जीव को अनुत्सुकता-अनुद्धता (अभिमान से, चपलता से राहित्य) की प्राप्ति होती है। अनुद्धता से मृदुता को प्राप्त करके वह जीव जाति, कुल, रूप, तप, ज्ञान, ऐश्वर्य और लाभ, इन आठ प्रकार के मद-स्थानों का नाश कर देता है। अब भाव-सत्य के विषय में कहते हैं - भावसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ। भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुढेइ। अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्टित्ता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ ॥ ५० ॥ भावसत्येन भदन्त. ! जीवः किं जनयति ? भावसत्येन भावविशुद्धिं जनयति। भावविशुद्धौ वर्तमानो जीवोऽर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याराधनायै अभ्युत्तिष्ठते। अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याराधनाय अभ्युत्त्थाय परलोकधर्मस्याराधको भवति ॥ ५० ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, भावसच्चेणं-भाव-सत्य से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण का उपार्जन करता है, भावसच्चेणं-भाव सत्य से, भावविसोहिं-भाव विशुद्धि का, जणयइ-उपार्जन करता है, भावविसोहीए-भावविशुद्धि में, वट्टमाणे-प्रवर्त्तमान, जीवे-जीव, अरहंतपन्नत्तस्स-अर्हन्त के प्रतिपादन किए हुए, धम्मस्स-धर्म की, आराहणयाए-आराधना के लिए, अब्भुढेइ-उद्यत होता है, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए-अर्हन्त-प्रणीत धर्म की आराधना में, अब्भुट्ठिता-उत्थित होकर, परलोगधम्मस्स-परलोकों में धर्म का, आराहए-आराधक, भवइ-होता है। . मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! भावसत्य से किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-भावसत्य से भाव की विशुद्धि होती है, भावविशुद्धि में प्रवृत्त हुआ जीव अरिहन्तदेव-प्रणीत धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता है। अरिहन्तदेव-प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए उद्योग करने वाला जीव परलोक में धर्म का आराधक बनता है। तात्पर्य यह है कि वह लोक-परलोक दोनों को ही सिद्ध कर सकता है। टीका-भावसत्य अर्थात् शुद्धान्त:करण से भाव की शुद्धि होती है, अर्थात् जीवात्मा के अध्यवसाय शुद्ध हो जाते हैं। भावों की शुद्धि हो जाने पर अरिहन्तदेव के प्रतिपादन किए हुए धर्म की • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१४७] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy