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________________ और कर्मदावानल को शान्त करता हुआ सर्व प्रकार के दु:खों का सदा के लिए अन्त कर देता है, अर्थात् परम-निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है। यहां पर 'कर्मांश' शब्द कर्म-ग्रन्थि का बोधक है। [कार्मग्रन्थिकपरिभाषया अंशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात् ] तथा पाठान्तर में 'अनिवृत्ति' के स्थान पर 'निवृत्ति' ऐसा पद भी देखने में आता है और उसका यह अर्थ किया जाता है कि-वेदनीय कर्म की जो दो समयमात्र की स्थिति है उसके बन्ध की निवृत्ति का सम्पादन करता है, परन्तु अधिक प्रतियों में तो प्रायः 'अनिवृत्ति' पाठ ही देखने में आता है और संगत भी वही प्रतीत होता है। परन्तु यह पूर्वोक्त सद्भाव-प्रत्याख्यान प्रायः प्रतिरूपता में ही सम्भव हो सकता है, अतः अब प्रतिरूपता के विषय में कहते हैं - पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयह ? पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ लघुभूए। णं जीवे अप्पमत्ते, पागडलिंगे, पसत्थलिंगे, विसद्धसम्मत्ते, सत्तसमिइसमत्ते, सव्वपाण-भूय-जीव-सत्तेसु वीससणिज्जरूवे, अप्पपडिलेहे, जिइंदिए, विउलतवसमिइसमन्नागए यावि भवइ ॥ ४२ ॥ प्रतिरूपतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिरूपतया लाघविकतां जनयप्ति। लघुभूतश्च जीवोऽप्रमत्तः प्रकटलिङ्गः, प्रशस्तलिङ्गो विशुद्धसम्यक्त्वः, समाप्तसत्यसमितिः सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वेषु विश्वसनीयरूपोऽल्पप्रतिलेखो, जितेन्द्रियो, विपुलतप, समितिसमन्वागतश्चापि भवति ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, पडिरूवयाए णं-प्रतिरूपता से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, पडिरूवयाए णं-प्रतिरूपता से, लाघवियं-लाघवता को, जणयइ-प्राप्त करता है, लघुभूए-लघुभाव को प्राप्त हुआ, जीवे-जीव, अप्पमत्ते-प्रमाद-रहित, पागडलिंगे-प्रकटलिंग, पसत्थलिंगे-प्रशस्तलिंग, विसुद्धसम्मत्ते-विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, सत्तसमिइसमत्ते-सत्य समिति से युक्त-प्रतिपूर्ण, सव्वपाण-भूय-जीव-सत्तेसु-समस्त प्राणि, भूत, जीव और सत्त्व में, वीससणिज्जरूवे-विश्वसनीयरूप, अप्पपडिलेहे-अल्प प्रतिलेखना वाला, जिइंदिए-जितेन्द्रिय, विउलतवसमिइ-विपुल तप और समिति से, समन्नागए-समन्वित, भवइ-होता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! प्रतिरूपता से किस गुण की प्राप्ति होती है? उत्तर-प्रतिरूपता से लघुभाव अर्थात् लघुता की प्राप्ति होती है। फिर लघुता को प्राप्त हुआ जीव, अप्रमत्त होकर प्रकट और प्रशस्त चिन्हों को धारण करता हुआ विशुद्ध-सम्यक्त्वी और सत्य-समिति वाला होकर सर्व प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों में विश्वस्त, अल्प प्रतिलेखना वाला और जितेन्द्रिय तथा विपुल तप और समिति से युक्त होता है, अर्थात् महाजितेन्द्रिय और विपुल तपस्वी होता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १४१] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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