SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कषायप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कषायप्रत्याख्यानेन वीतरागभावं जनयति। वीतरागभावं प्रतिपन्नश्चापि जीवः समसुखदुःखो भवति ॥ ३६ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, कसायपच्चक्खाणेणं-कषाय के प्रत्याख्यान से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, कसायपच्चक्खाणेणं-कषाय के प्रत्याख्यान से, वीयरागभावं-वीतरागता का, जणयइ-उपार्जन करता है, य-फिर, वीयरागभावपडिवन्ने-वीतरागभाव को प्राप्त हुआ, जीवे-जीव, समसुहदुक्खे-समान-दु:ख वाला, भवइ-होता है, अवि-पुनरर्थक है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती उत्तर-कषाय के प्रत्याख्यान से वीतरागता की प्राप्ति होती है और वीतराग भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख और दुःख दोनों में समान भाव वाला हो जाता है। टीका-क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों की कषाय संज्ञा है। 'कष' अर्थात् संसार का, 'आय' अर्थात् आगमन हो जिससे, वह कषाय है। इन कषायों के प्रत्याख्यान-परित्याग से इस जीवात्मा को वीतरागता की प्राप्ति होती है, अर्थात् कषायमुक्त जीव रागद्वेष से रहित हो जाता है। रागद्वेष से मुक्त होने के कारण उसको सुख और दुःख में भेद-भाव की प्रतीति नहीं होती, अर्थात् सुख की प्राप्ति पर उसको हर्ष नहीं होता और दुःख में वह किसी प्रकार के उद्वेग का अनुभव नहीं करता, किन्तु सुख और दु:ख दोनों का वह समानबुद्धि से आदर करता है। तात्पर्य यह है कि उसकी आत्मा में समभाव की परिणति होने लगती है; इसलिए समभाव से भावित हो जाना ही कषाय-त्याग का फल है। अब योग-प्रत्याख्यान के विषय में कहते हैं - .... . जोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं निज्जरेइ ॥ ३७ ॥ योगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? योगप्रत्याख्यानेनायोगित्वं जनयति। अयोगी हि जीवो नवं कर्म न बजाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥ ३७ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! जोगपच्चक्खाणेणं-योग के प्रत्याख्यान से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, जोगपच्चक्खाणेणं-योग के प्रत्याख्यान से, अजोगत्तं-अयोगित्व-अयोगिभाव को, जणयइ-प्राप्त करता है, अजोगी-अयोगी, जीव-जीव, नव-नवीन, कम्म-कर्म को, न बंधइ-नहीं बांधता, पुव्वबद्धं-पहले बांधे हुए का, निजरेइ-नाश कर देता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३६] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं.
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy