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________________ विनिवर्तनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? __विनिवर्तनया पापानां कर्मणामकरणतयाऽभ्युत्तिष्ठति । पूर्वबद्धानाञ्च निर्जरणया पापं निवर्तयति। ततः पश्चाच्चतुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजति ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, विणियट्टणयाएणं-विनिवर्तना से, जीव-जीव, किंजणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, विणियट्टणयाएणं-विनिवर्तना से, पावकम्माणं-पाप-कर्मों के, अकरणयाए-न करने के लिए, अब्भुट्टेइ-उद्यत होता है, य-फिर, पुव्वबद्धाणं-पूर्व बांधे हुए को, निज्जरणयाए-निर्जरा करने से, पावं-पाप-कर्म की, नियत्तेइ-निवृत्ति करता है, तओ पच्छा-तत्पश्चात् चाउरतं-चतुर्गति रूप, संसारकतारं-संसार कान्तार को, वीइवयइ-अतिक्रम कर जाता है, अर्थात् लांघ जाता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! विनिवर्तना अर्थात् विषय-वासना के त्याग से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-हे शिष्य ! विषय-वासना के त्याग से जीव पापकर्मों को नहीं बांधता और पूर्व में बंधे हुए कर्मों की निर्जरा कर देता है। तदनन्तर चतुर्गतिरूप इस संसारकान्तार को पार कर जाता है। टीका-प्रस्तुत गाथा में विषय-विरक्ति के फल का वर्णन किया गया है, अर्थात् विषयों से पराङ्मुख होने वाला जीव किस गुण को प्राप्त करता है? ऐसी शिष्य की शंका का समाधान करते हुए गुरु कहते हैं कि विषयों से विरक्त होने वाला जीव नए पापकर्मों का. उपार्जन नहीं करता और पूर्व में संचित किए हुए कर्मों का नाश कर देता है। इस प्रकार पूर्वसंचित कर्मों का नाश और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव हो जाने से वह जीव इस संसाररूप महाभयानक जंगल,से पार हो जाता है, अर्थात् फिर इसको जन्म-मरण की परम्परा में नहीं आना पड़ता। . अब संभोग-प्रत्याख्यान के विषय में कहते हैं - संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयह ? संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ। निरालंबणस्स य आयट्ठिया जोगा भवंति। सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभं नो.आसादेइ, नो तक्केइ, नो पीहेइ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ। परलाभं अणस्सायमाणे, अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेन्जं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ॥ ३३ ॥ संभोगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? संभोगप्रत्याख्यानेन जीव आलम्बनानि क्षपयति। निरालम्बस्य चायतार्था योगा भवन्ति। स्वेन लाभेन सन्तुष्यति। परस्य लाभं नास्वादयति, नो तर्कयति, नो स्पृहयति, नो प्रार्थयति, नोऽभिलषति। परस्य लाभमनास्वादयन्, अतर्कयन्, अस्पृहयन्, अप्रार्थयन्, अनभिलषन् द्वितीयां सुखशय्यामुपसम्पद्य विहरति ॥ ३३ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १३२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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