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________________ अन्तःकरण कांपने लग जाता है और वह दुःखी को देखकर दुःखी बन जाता है। इसके अतिरिक्त वह अभिमान से भी रहित हो जाता है तथा किसी इष्ट पदार्थ के वियोग और अनिष्ट के संयोग से उसको किसी प्रकार का शोक, सन्ताप भी नहीं होता। इस प्रकार प्रकृष्टतम शुभ अध्यवसाययुक्त होने से वह चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय कर डालता है। अब अप्रतिबद्धता के विषय में कहते हैं अप्पडिबद्धयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अप्पडिबद्धयाएणं निस्संगत्तं जणय । निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असज्जमाणे अप्पडिबद्धे यावि विहरइ ॥ ३० ॥ अप्रतिबद्धता भदन्त ! जीवः किं जनयति ? | अप्रतिबद्धतया निःसङ्गत्वं जनयति । निःसङ्गत्वेन जीव एक एकाग्रचित्तो दिवा च रात्रौ चासजन्नप्रतिबद्धश्चापि विहरति ॥ ३० ॥ - पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, अप्पडिबद्धयाएणं- अप्रतिबद्ध भाव से, जीवे - जीव, किं जय - क्या गुण उत्पन्न करता है, अप्पडिबद्धयाएणं- अप्रतिबद्धता से, निस्संगत्तं - निःसंगता को, जय प्राप्त करता है, निस्संगत्तेणं - नि:संगता से, जीवे - जीव, एगे- एकाकी, एगग्गचित्ते - एकाग्रचित्त होकर दिया - दिन में, य- अथवा, राओ - रात्रि में, य- समुच्चय अर्थ में, असज्जमाणे- अनासक्त, अप्पडिबद्धे - अप्रतिबद्ध, य- पुनः अवि- विशेष भाव से युक्त, विहरइ - विचरता है। मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अप्रतिबद्धता से अर्थात् विषयादि के अप्रतिबन्ध से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर - अप्रतिबद्धता से जीव निस्संगत्व अर्थात् असंगता को प्राप्त करता है । निस्संगता से रागादिरहित होकर जीव को चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। उससे वह जीव अहोरात्र किसी भी वस्तु में अनुराग न रखता हुआ अप्रतिबद्धभाव से विचरता है। टीका - शिष्य पूछता है कि भगवन् ! अप्रतिबद्धता अर्थात् किसी भी पदार्थ में ममत्व न रखने से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है? इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि ममत्व के त्याग से इस जीव असंगत्व की प्राप्ति होती है, अर्थात् वह संग से रहित हो जाता है। संगरहित होने उसका किसी भी पदार्थ में राग नहीं रह जाता। इसलिए वह हर प्रकार के बाह्य संग का परित्याग करता हुआ अप्रतिबद्धरूप से विचरने लगता है। तात्पर्य यह है कि जब किसी पदार्थ पर से इस जीव का प्रतिबन्ध अर्थात् ममत्व उठ जाता है तो उसको पदार्थ की प्राप्ति तथा अप्राप्ति में किसी प्रकार का हर्ष या शोक नहीं होता और संगदोष से उत्पन्न होने वाली नानाविध उपाधियों से भी मुक्त रहता है। अतएव अप्रतिबद्ध भाव से विचरण करता हुआ वह मास - कल्पादि के अनुष्ठान में सदा उद्यत रहता है। परन्तु अप्रतिबद्धता विविक्त - शयनासन से ही संभव हो सकती है। अतः अब विविक्ति शयनासन के विषय में कहते हैं उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३०] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं -
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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