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________________ तो अल्पप्रदेशी कर देता है। उसके आयुकर्म का बन्ध कदाचित् हो और न भी हो परन्तु असातावेदनीयकर्म को वह बार-बार नहीं बांधता, और वह अनादि अनन्त तथा दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसारजंगल को शीघ्र ही पार कर जाता है। ____टीका-अनुप्रेक्षा नाम सूत्रार्थचिन्तन का है। दूसरे शब्दों में उसे तत्त्व-चिन्तन कहते हैं। शिष्य इस तत्त्वचिन्तन के फल को गुरुओं से पूछता है। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि अनुप्रेक्षा करने से यह जीव निकाचित कर्मों के प्रगाढ़ बन्धनों को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को क्षय करके स्वल्पकाल की बनाता है तथा यदि उनका विपाक कटु अर्थात् तीव्र हो तो उसको मन्द कर लेता है। इसी प्रकार यदि वह स्थिति बहुप्रदेश वाली है, उसको स्वल्पप्रदेशी बना लेता है। इस सारे कथन का अभिप्राय यह है कि अध्यवसाय-विशेष से आत्म-प्रदेशों के साथ कर्माणुओं का क्षीर-नीर की तरह जो सम्बन्ध होता है उसको बन्ध कहते हैं। उसके चार भेद हैं-१. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभाग-रसबन्ध और ४. प्रदेशबन्ध। अनुप्रेक्षा करने से यह जीव बन्ध के इन चारों भेदों में नयूनता का सम्पादन कर देता है अर्थात् इन चारों प्रकृतियों के अशुभ बन्ध में कमी कर देता है, जैसे कि ऊपर कहा गया है। इसके अतिरिक्त वह आयुकर्म को बांधता भी है और नहीं भी बांधता. है। कारण यह है कि शास्त्रकारों ने आयुकर्म का बन्ध आयु के तीसरे भाग में प्रतिपादन किया है, अतः यदि अनुप्रेक्षा करते समय तीसरा भाग न हो तो आयु:कर्म नहीं बांधेगा, अथवा जिस आत्मा को उसी जन्म में मोक्ष पाना है वह भी आयुःकर्म का बन्ध नहीं करता। परन्तु आसातावेदनीय आदि अशुभ कर्मप्रकृतियों को वह पुनः-पुनः नहीं बांधता। यहां पर पुनः पुनः शब्द इसलिए प्रयुक्त किया गया है कि यदि यह जीव अप्रमत्तगुणस्थान से प्रमत्तगुणस्थान में आ जाए तो उक्त कथन असंभव हो जाएगा। किसी-किसी प्रति में यह पाठ है कि- “सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ-सातावेदनीयञ्च कर्म भूयो भूय उपचिनोति"-अर्थात् सातावेदनीय कर्म को पुनः-पुनः बांधता है। अतः च शब्द से शुभ प्रकृतियों के समूह का ग्रहण करना चाहिए। यह संसार रूप वन अनादि-अनन्त और बहत लम्बा-चौडा है। देव, मनुष्य, नरक और तिर्यक् रूप चारों गतियां इसके अवयव हैं। ऐसे भयानक संसारवन को यह जीव अनुप्रेक्षा के द्वारा पार कर जाता है। अनुप्रेक्षा से यहां पर सभी प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का ग्रहण अभिमत है। यथा-अनित्यादि द्वादश अनुप्रेक्षा, धर्मध्यानसम्बन्धी चार और शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षा इत्यादि। अब धर्मकथा के विषय में कहते हैं, यथा - धम्मकहाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मकहाणं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाणं पवयणं पभावेइ । पवयण-पभावेणं जीवे आगमेसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ ॥ २३ ॥ धर्मकथया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? । धर्मकथया निर्जरां जनयति। धर्मकथया प्रवचनं प्रभावयति। . प्रवचनप्रभावेण जीव आगमिष्यद्भद्रतायाः कर्म निबध्नाति ॥ २३ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१२४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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