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________________ पदार्थान्वयः-भंते-हे भदन्त, पडिपुच्छणयाएणं-प्रतिपृच्छा से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, पडिपुच्छणयाएणं-प्रतिपृच्छा से, सुत्तत्थतदुभयाई-सूत्र और अर्थ. दोनों की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है तथा, कंखामोहणिज्जं-कांक्षामोहनीय, कम्म-कर्म का, वोच्छिदइ-विच्छेद करता है। मूलार्थ-(प्रश्न)-हे भगवन् ! प्रतिपृच्छना अर्थात् शास्त्र-चर्चा से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-प्रतिपृच्छा अर्थात् शास्त्रचर्चा करने से सूत्र और उसका अर्थ, इन दोनों की विशुद्धि करता है तथा कांक्षामोहनीय कर्म का विशेष रूप से नाश करता है। टीका-सूत्रार्थ में सन्देह उत्पन्न होने पर उसकी निवृत्ति के लिए जो विनय-पूर्वक शंकासमाधान के रूप में चर्चा की जाए, उसको प्रतिपृच्छा कहते हैं। शिष्य पूछता है कि भगवन् ! प्रतिपृच्छा से इस जीव को क्या लाभ होता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि भद्र ! प्रतिपृच्छा से सूत्र और उसका अर्थ दोनों ही शुद्ध हो जाते हैं और साथ में कांक्षामोहनीय कर्म का भी क्षय हो. जाता है। कांक्षामोहनीय में अनभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है, इसलिए यह दर्शन-मोहनीय का ही भेद है। अब परिवर्तना के फल का वर्णन करते हैं - परियट्टणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । परियट्टणयाएणं वंजणाई जणयइ। वंजणलद्धिं च उप्पाएइ ॥ २१ ॥ परिवर्तनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?। । परिवर्तनया व्यञ्जनानि जनयति। व्यञ्जनलब्धिञ्चोत्पादयति ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, परियट्टणयाएणं-परिवर्तना से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, परियट्टणयाएणं-परिवर्तना से, वंजणाइं-व्यंजनों को, जणयइ-उत्पन्न करता है, वंजणलद्धि-व्यंजन-लब्धि को, च-तथा पदानुसरणीलब्धि को, उप्पाएइ-उत्पन्न करता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! परिवर्तना से यह जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-हे शिष्य ! परिवर्तना से यह जीव व्यंजन और व्यंजन-लब्धि को प्राप्त कर लेता है तथा पदानुसरणीलब्धि भी उसको प्राप्त हो जाती है। ___टीका-पढ़े हुए सूत्र-पाठ को पुनः-पुनः आवर्तन करना परिवर्तना है। गुरु कहते हैं कि हे शिष्य! परिवर्तना से यह जीव जिनके द्वारा अर्थ की प्राप्ति होती है उन व्यंजनों-अक्षरों को उत्पन्न कर लेता है, अर्थात् बार-बार आवृत्ति करने से यह अस्खलित-सूत्रार्थ हो जाता है। यदि पाठ करते-करते विस्मृति हो जाए तो शीघ्र ही स्मरण हो आता है। इतना ही नहीं, किन्तु क्षयोपशम के प्रभाव से उसको व्यंजनलब्धि और चकार से पदलब्धि की प्राप्ति हो जाती है। अक्षरलब्धि-अक्षरों का स्मरण है और पदलब्धि-पदों का स्मरण। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१२२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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