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________________ पदार्थान्वयः-भंते-भगवन्, वंदणएणं-गुरु-वन्दना से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस फल को उत्पन्न करता है? वंदणएणं-वन्दना से, नीयागोयं-नीच गोत्र, कम्म-कर्म को, खवेइ-क्षय करता है, उच्चागोयं-उच्चगौत्र को, निबंधइ-बांधता है, च णं-फिर, सोहग्गं-सौभाग्य, अपडिहयं-अप्रतिहत, आणाफलं-आज्ञाफल को, निव्वत्तेइ-उत्पन्न करता है, च णं-तथा, दाहिणभावं-दक्षिण भाव को, जणयइ-उपार्जन करता है। मूलार्थ-(प्रश्न)-हे भगवन् ! वन्दना से यह जीव किस फल को प्राप्त करता है? उत्तर-वन्दना से यह जीव नीच गोत्र-कर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र को बांधता है तथा अप्रतिहत सौभाग्य और आज्ञा-फल को प्राप्त करता है एवं दक्षिण-भाव का उपार्जन करता है। टीका-प्रस्तुत सूत्र में गुरु वन्दना का फल बताते हुए प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि गुरुजनों की वन्दना करने से यदि इस जीव ने नीच गोत्र भी बांधा हुआ हो तो उसको दूर करके वह उच्च गोत्र को बांध लेता है, अर्थात् जिन कर्मों के प्रभाव से वह अधम कुल में उत्पन्न होता है उनका विनाश करके उत्तम कुल में उत्पन्न कराने वाले. कर्मों का उपार्जन कर लेता है। इसके अतिरिक्त वह सौभाग्य और सफल आज्ञा के फल को प्राप्त करता है, अर्थात् जनसमुदाय का वह मान्य बन जाता है और दाक्षिण्य भाव को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि उसका सौभाग्य स्पृहणीय बन जाता है और जनसमुदाय पर उसका पूर्ण प्रभाव होता है, इसीलिए वह विश्व का प्यारा बन जाता है, उस पर सभी लोग विश्वास करते हैं, तथा सभी अवस्थाओं में लोग उसके अनुकूल रहते हैं और वह लोगों के अनुकूल रहता है। अब प्रतिक्रमण का उल्लेख करते हैं, यथा - पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचंरित्ते अट्ठसु पवयण-मायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ ॥ ११ ॥ प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिक्रमणेन व्रतच्छिद्राणि पिदधाति, पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धाश्रवोऽशबलचारित्रश्चाष्टसु प्रवचनमातृषूपयुक्तोऽपृथक्त्वः सुप्रणिहितो विहरति ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, पडिक्कमणेणं-प्रतिक्रमण से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस फल को प्राप्त करता है? पडिक्कमणेणं-प्रतिक्रमण से, वयछिद्दाणि-व्रतों के छिद्रों को, पिहेइ-ढांपता है, पिहियवयछिद्दे-पिहित-व्रत-छिद्र, पुण-फिर, जीव-जीव, निरुद्धासवे-निरोध किया है आस्रवों को जिसने, असबल-अकर्बुर, चरित्ते-चारित्रवान्, अट्ठसु-आठ, पवयण-मायासु-प्रवचन-माताओं • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११३] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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