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________________ पञ्चदशाध्ययनम् । हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६५६ इस जगत् को ईश्वरकृत मानते हैं, कोई स्वभावजन्य कहते हैं। कोई वाममार्ग पर आरूढ हैं तो कोई पांचभौतिक अर्थात् पांच भूतों के उपासक हैं। तथा किसी का कथन है कि- 'सेतुकरणेऽपि धर्मो भवत्यसेतुकरणेऽपि किल धर्मः। गृहवासेऽपि च धर्मो वनेऽपि वसतां भवति धर्मः । मुंडस्य भवति धर्मः, तथा जटाभिः सवाससां धर्मः।' इत्यादि। दार्शनिकों के इन जटिल वाद-विवादों को सुनकर वा जानकर साधु अपने सम्यग् ज्ञानादि से विचलित न होवे । तथा अपने आत्मा के हित से भी पराङ्मुख न होवे । क्योंकि लोक में इस प्रकार के विवादग्रस्त विचारों का मूल कारण मिथ्यात्वादि दोष हैं । परन्तु साधु को तो कर्मक्षय के हेतुभूत विशुद्ध संयम का ही अनुसरण करना चाहिए। तथा जिसने शास्त्रों के द्वारा आत्मा के स्वरूप को जान लिया है, उसको कोविदात्मा अर्थात् पंडित कहते हैं। प्रज्ञावान् उसको कहते हैं, जिसको सदसत् वस्तु का पूर्ण विवेक हो अर्थात् जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है, वह प्रज्ञावान् कहलाता है । अतएव वह परीषहों पर विजय प्राप्त करके सर्वदर्शी हो जाता है अर्थात् उसकी विवेकपूर्ण दृष्टि में विषमता को स्थान नहीं रहता किन्तु जीवमात्र को वह अपने ही स्वरूप में देखता है । क्योंकि वह उपशान्तात्मा है अतएव जीवमात्र को अपने आत्मा के समान देखता हुआ वह किसी के भी कार्य का विघातक नहीं होता अर्थात् किसी के कार्य में विघ्न अथवा हानि करने वाला नहीं होता । सारांश कि जो व्यक्ति इन उक्त गुणों से युक्त है, वही भिक्षुपद को सार्थक करने वाला होता है । इस विषय में इतना और समझ लेना चाहिए कि सिद्धान्त के विषय में जैनभिक्षु का मन्तव्य दूसरों से चाहे भिन्न ही है तो भी दूसरों को अन्तराय अथवा दूसरों से वितंडावाद करना तथा वाद-विवाद के लिए दूसरों को बलात् आमंत्रित करना, उसकी साधुमर्यादा से सर्वथा बाहर है । इसलिए इन बातों को विचारशील साधु को कभी आचरण में नहीं लाना चाहिए । तथा—“खेदानुगतः” का अर्थ है संयम से युक्त होना । वृत्तिकार को भी यही अर्थ अभिमत है। यथा— 'खेदयति कर्म अनेनेति खेदः संयमस्तेनानुगतो युक्तः' अर्थात् जिसके द्वारा कर्मों को खेदित–व्यथित—किया जाय उसको खेद कहते हैं, वह संयम है । उसके अनुगत अर्थात् युक्त जो हो, वह खेदानुगत–संयमयुक्त कहलाता है। अब अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार फिर भिक्षु के ही स्वरूप का वर्णन करते हैं । यथा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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