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________________ पञ्चदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६४७ नरनारि-पुरुष और स्त्री की संगति को पजहे-छोड़ देवे सया-सदैव तवस्सीतप करने वाला य-और न कोऊहलं-नहीं कौतूहल को उवेइ-प्राप्त होता स-वही भिक्खू-भिक्षु है। . मूलार्थ-जिसके संग करने से संयमरूप जीवितव्य घटता हो अथवा सम्पूर्ण मोहनीयकर्म का बन्ध होता हो, ऐसे नर और नारी की संगति को जो तपस्वी सदा के लिए छोड़ देवे और कुतूहलता को प्राप्त न होवे, वही भिक्षु कहलाता है । ___टीका-इस गाथा में संयम के विघात करने वाले पदार्थों के संसर्ग का निषेध किया गया है अर्थात् जिनके संसर्ग से संयमरूप जीवन का विनाश होता हो अथवा मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण प्रकार से बन्ध होता हो, इस प्रकार के पुरुष अथवा स्त्री की संगति को तपस्वी साधु सदा के लिए छोड़ देवे । क्योंकि इनके संसर्ग से आत्मगुणों की विराधना होने की संभावना है तथा कौतूहलवर्धक व्यापार का भी साधु को सदा त्याग ही रखना चाहिए क्योंकि इससे मोहनीय कर्म का बन्ध होता है। इसलिए स्त्री आदि की कथा तथा अन्य कामवर्द्धक विचारों का सर्वथा त्याग करने वाला भिक्षु-साधु-मुनि कहलाता है। ___इस प्रकार भिक्षु के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन करके अब उसको अपनी जीवन यात्रा के लिए जिन कामों का निषेध है, उनके विषय में कहते हैंछिन्नं सरं भोममन्तलिक्खं, सुविणं लक्खणदण्डवत्थुवित्रं । अंगवियारं सरस्स विजयं, जे विजाहिं न जीवई स भिक्खू ॥७॥ छिन्नं खरं भौममन्तरिक्ष, ___ स्वप्नं लक्षणदण्डवास्तुविद्याम् । अङ्गविकारं स्वरस्य विजयं, ___ यो विद्याभिर्न जीवति स भिक्षुः ॥७॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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