SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ NAVANAVRAV A AVA ६२८]. उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्दशाध्ययनम् दवग्गिणा जहारण्णे, डज्झमाणेसु जन्तुसु । अन्ने सत्ता पमोयन्ति, रागहोसवसं गया ॥४२॥ एवमेव वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं न बुझामो, रागहोसग्गिणा जगं ॥४३॥ दवाग्निना यथारण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशं गताः ॥४२॥ एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूछिताः। दह्यमानं न बुध्यामहे, रागद्वेषाग्निना जगत् ॥४॥ पदार्थान्वयः-दवम्गिणा-दवाग्नि द्वारा जहा-जैसे अरण्णे-वन में डज्झमाणेसु-जलते हुए जन्तुसु-जन्तुओं को देखकर–अन्ने-अन्य सत्ता-जीव पमोयन्ति-आनन्द मनाते हैं रागद्दोस-रागद्वेष के वसं गया-वश में होते हुए। एवमेव-इसी प्रकार वयं-हम मूढा-मूढ हैं . कामभोगेसु-कामभोगों में मुच्छिया-मूर्छित हैं डज्झमाणं-जलते हुए प्राणियों को देखकर न बुज्झामो-बोध को प्राप्त नहीं होते जो रागद्दोसग्गिणा-रागद्वेष रूप अग्नि से जगं-जगत् जला रहा है। - मूलार्थ-जैसे वन की अग्नि से जलते हुए जीवों को देखकर रागद्वेष के वशीभूत हुए अन्य जीव हर्ष मनाते हैं, उसी प्रकार कामभोगों में अत्यन्त आसक्त हुए हम मूढ़ भी जलते हुए प्राणियों को देखकर बोध को प्राप्त नहीं होते क्योंकि रागद्वेषरूप अनि से यह जगत् जल रहा है। टीका-कमलावती कहती है कि हे राजन् ! वन में दवाग्नि के प्रचंड होने से अनेक जंतु जलकर भस्म हो जाते हैं परन्तु वन से बाहर के जीव उन भस्म हुए जंतुओं को देखकर रागद्वेष के कारण आनन्द मनाते हैं । अविवेक के प्रभाव से उनके हृदय में ये भाव उत्पन्न होते हैं कि ये हमारे परम शत्रु थे। अच्छा हुआ, जो कि भस्म हो गये। अब निष्कंटकता हो जायगी तथा वन में हम अब सुखपूर्वक निवास करेंगे, इत्यादि। उसी प्रकार राग, द्वेष और मोह के वश में होकर हम भी उन पशुओं की तरह महामूढ बनकर कामभोगों में अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं क्योंकि रागद्वेष रूप अग्नि के द्वारा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy