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________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ११३१ हो, वह श्रमण है । इसी प्रकार मन, वचन और शरीर से ब्रह्मचर्य के धारण करने वाला ब्राह्मण होता है । 'ब्रह्म' शब्द के दो अर्थ हैं— एक शब्दब्रह्म, दूसरा परब्रह्म । इसके अतिरिक्त ब्रह्म शब्द कुशलानुष्ठान का वाचक भी है । इसलिए जो व्यक्ति शब्दब्रह्म में निष्णात होकर परब्रह्म - अहिंसादि महाव्रतों और कुशलानुष्ठान को धारण करता है, वही ब्राह्मण है । ठीक इसी प्रकार ज्ञान - तत्त्वज्ञान से मुनि होता है, अर्थात् जो तत्त्वविद्या में निष्णात हो, वह मुनि है । इसी भाँति तप का आचरण करने वाला तापस है । इच्छा के निरोध को तप कहते हैं अर्थात् जिसने इच्छाओं का निरोध कर दिया हो, वह तपस्वी है। प्रस्तुत गाथा में जो कुछ कहा 4 गया है, उसका अभिप्राय यह है कि गुणों से ही पुरुष श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तपस्वी हो सकता है, न कि बाहर के केवल वेष मात्र से - द्रव्यलिंग मात्र से 1 इसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्णों का विभाग भी कर्म के ही अधीन है । तथाहि- कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा वैश्यों कर्मणा भवति, शूद्रो भवति भवति पदार्थान्वयः—कम्मुणा-कर्म से बम्भणो-ब्राह्मण कर्म से खत्तिओ - क्षत्रिय होह होता है । वईसो- वैश्य होता है । सुद्दो - शूद्र कम्मुखा - कर्म से हवड़ - होता है । खत्तिओ । कम्मुणा ||३३|| क्षत्रियः । कर्मणा ॥ ३३ ॥ होइ -होता है कम्मुणाकम्मुणा - कर्म से होइ - मूलार्थ - कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से चत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । टीका - प्रस्तुत गाथा में ब्राह्मणादि चारों वर्णों की उत्पत्ति और स्थिति का संक्षेप से वर्णन किया गया है। जैसे कि मनुष्यजाति तो एक ही है परन्तु क्रिया विभाग से चारों वर्णों की मर्यादा स्थापन की गई है। जिस समय मनुष्यजाति में अकर्म-भूमिज मनुष्य थे, उस समय वर्णव्यवस्था की कोई आवश्यकता नहीं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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