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________________ ११२८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [पञ्चविंशाध्ययनम् उल्लेख प्रत्यक्ष पाया जाता है । अत: इन उपरोक्त वैध यज्ञों के लिए वेदों का अध्ययन, पारलौकिक दुःखों से बचाने में कभी सहायक अथवा समर्थ नहीं हो सकता । उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि हिंसाजनक क्रियाओं के अनुष्ठान से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का तीव्र बन्ध होता है और उसी के कारण यह आत्मा दुर्गति में जाता हैं। इससे प्रमाणित हुआ कि वेदोक्त हिंसामय यज्ञों से किसी प्रकार के भी पुण्य फल की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी लिए सांख्यमत के मानने वालों ने भी इन वैध यज्ञों की बड़ी कड़ी आलोचना की है-'वृक्षांश्छित्त्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं प्राप्यते स्वर्गो नरके केन गम्यते ॥' अर्थात् यूपार्थ वृक्षों को काटकर, पशुओं को मारकर और रुधिर का कीचड़ करके यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो फिर नरक-प्राप्ति के साधन कौन-से हैं ? तात्पर्य यह है कि इन उपायों से स्वर्ग की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती । यहाँ पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि प्रस्तुत सूत्र के गत बारहवें अध्ययन में वेदों को हिंसा के विधायक नहीं माना किन्तु यह कहा है कि तुम वेदों को पढ़ते तो हो परन्तु उनके अर्थों का तुमको ज्ञान नहीं है। और यहाँ पर उसके विरुद्ध यह लिखा है कि समस्त वेद पशुबन्धनार्थ हैं, और तत्प्रतिपाद्य यज्ञादि कर्म पाप के हेतुभूत हैं । इस कथन से यह प्रतीत होता है कि जयघोष मुनि के समय में हिंसात्मक वैदिक यज्ञों की प्रथा चल पड़ी थी और उसका प्रचार अधिक हो चुका था और वर्तमान काल में वेदों के जितने भी प्राचीन भाष्य उपलब्ध होते हैं, उनमें हिंसा का विधान पुष्कल रूप से पाया जाता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक भाष्यों की भी यही दशा है । उदाहरणार्थ स्वर्गीय पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र के यजुर्वेदीय भाषाभाष्य को ले लीजिए। उसमें यजुर्वेद के २५वें अध्याय के आश्वमेधिक प्रकरण को पढ़िए और देखिए कि उसमें किस प्रकार से हिंसा का विधान किया गया है। वस्तुतः इसमें भाष्यकारों का कोई दोष नहीं। उन्होंने तो मूल वेदमन्त्रों का प्रकरणसङ्गत, प्रमाणयुक्त और मन्त्र के अनुसार जो अर्थ था, वह कर दिया है । अब रही स्वामी दयानन्द जी के भाष्य की बात, सो स्वामी जी का वेदभाष्य तो संसार में अपने नमूने का एक ही भाष्य है ! उक्त भाष्य का विचारपूर्वक स्वाध्याय करने से पता चलता है कि यह भाष्य बिलकुल असम्बद्ध है। एक मन्त्र की दूसरे मन्त्र से न तो कोई प्रकरणगत संगति है और न किसी
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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