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________________ चर्विशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १११५ च ब्रह्मर्षिणा प्रणीतानि तानि पुस्तकानि ब्राह्मणानि' । ब्रह्माण्डपुराण में कहा है कि- 'इह हि इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दशप्रकारो धर्मः स्वयमेव चीर्णः । केवलज्ञानलम्भाच्च महर्षिणो ये परमेष्ठिनो वीतरागाः स्नातका निर्मन्था नैष्ठिकास्तेषां प्रवर्तित आख्यातः प्रणीतश्च त्रेतायामादौ' इत्यादि । इससे सिद्ध है कि सब धर्मों में प्रधान काश्यप — श्रीऋषभदेव ही हैं । अतः जिस प्रकार का अग्निहोत्र आदि कर्म का स्वरूप तुमने माना हुआ है, वह समीचीन नहीं । उसका यथार्थ भाव वही है, जो कि ऊपर प्रदर्शित किया गया है । अब काश्यप की प्रधानता के विषय में फिर कहते हैं जहा चन्दं गहाईया, चिट्ठन्ति वन्दमाणा नर्मसन्ता, उत्तमं पंजलीउडा । मणहारिणो ॥१७॥ यथा चन्द्र ग्रहादिकाः, तिष्ठन्ति उत्तमं प्राञ्जलिपुटाः । मनोहारिणः ॥१७॥ वन्दमाना नमस्यन्तम्, पदार्थान्वयः – जहा - जैसे चन्दं - चन्द्रमा को गहाईया - प्रहादिक पंजलीउडा—हाथ जोड़कर वन्दमाणा - वन्दना करते हुए नमसन्ता - नमस्कार करते हुए उत्तमं - प्रधान को मणहारिणो-मन को हरण करने वाले चिट्ठन्ति - स्थित हैं । . मूलार्थ - जिस प्रकार सर्वप्रधान चन्द्रमा की, मनोहर नचत्रादि तारागय, हाथ जोड़कर वन्दना और नमस्कार करते हुए स्थित हैं, उसी प्रकार इन्द्रादि देव भगवान् काश्यप — ऋषभदेव - की सेवा करते हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में नक्षत्र और चन्द्रमा के दृष्टान्त से भगवान् ऋषभदेव के महत्त्व का वर्णन किया गया है। जैसे ग्रह, नक्षत्र और तारागणों का स्वामी होने से चन्द्रमा उनके द्वारा पूजनीय और वन्दनीय हो रहा है, वैसे ही श्रीऋषभदेव, देवेन्द्र और मनुजेन्द्रादि के पूजनीय और सेवनीय हैं। तात्पर्य यह है कि लोक मैं वे चन्द्रमा के समान सर्वप्रधान माने गये हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त चारों प्रश्नों का उत्तर देने के अनन्तर अब पाँचवें प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रथम उसकी भूमिका की रचना करते हैं t
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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