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________________ ११०६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [पञ्चविंशाध्ययनम् मधुर अम्लादि सारे ही रस विद्यमान हैं, जिनका कि खाने वाले को सुखपूर्वक अनुभव हो सकता है । यद्यपि शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, और ज्योतिष ये छः वेदों के अंग कथन किये हैं अतः अंग के कथनमात्र से ही ज्योतिष का ग्रहण हो सकता है तो फिर ज्योतिष का पृथक् ग्रहण क्यों किया ? इस प्रकार की शंका का उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं तथापि शास्त्रकार ने जो उसको पृथक् ग्रहण किया है उसका तात्पर्य उसकी-ज्योतिष-की-प्रधानता को सूचन करना है अर्थात् यज्ञमण्डप में यज्ञसम्पादनार्थ उपस्थित ब्राह्मण इस विद्या में विशेष निपुण हैं । मनुष्यों के सुख-दुःख, जन्म-मरण, लाभ-हानि आदि बातों का इसके द्वारा भली भाँति ज्ञान हो जाता है। इसलिए भी इसका पृथक् ग्रहण है।' 'धम्माण पारगा-धर्माणां पारगाः'-धर्मों के पारगामी-इस वाक्य में आये हुए धर्म शब्द का अर्थ है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चतुर्वर्ग का प्रतिपादन करने वाले धर्मशास्त्र । उनके पारगामी अर्थात् धर्मशास्त्रों के मर्मज्ञ-मर्म को जानने वाले। इस सारे वर्णन से विजयघोष का आशय यह प्रतीत होता है कि वह जयघोष मुनि से कह रहे हैं कि जो इन पूर्वोक्त गुणों से अलंकृत हैं, उन्हीं के लिए यह भोजन प्रस्तुत-तय्यार कराया गया है और किसी के लिए नहीं। अतः आप कहीं अन्यत्र जावें क्योंकि एक तो आप हमारे सम्प्रदाय से पृथक् हैं, दूसरे आपमें इन उक्त गुणों का अभाव है। इसलिए यहाँ से आपको भिक्षा की प्राप्ति नहीं हो सकती कारण कि आप इसके अधिकारी नहीं हैं। विजयघोष के इस प्रकार के भिक्षानिषेधसम्बन्धी नीरस वचनों का जयघोष मुनि पर क्या प्रभाव पड़ा, अब इस विषय का वर्णन करते हैं सो तत्थ एवं पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। नवि रुट्ठो नवि तुट्ठो, उत्तमढगवेसओ ॥९॥ स तत्रैवं प्रतिषिद्धः, याजकेन महामुनिः। नापि रुष्टो नापि तुष्टः, उत्तमार्थगवेषकः ॥९॥ १ शिक्षा कल्पो म्याकरणं निरुकं छन्द एव च । ज्योतिष चेति विज्ञेयं षडङ्गानि पृथक् पृथक् ॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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