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________________ उत्तराध्ययन सूत्रम् [ पञ्चविंशाध्ययनम् पदार्थान्वयः—समुवट्ठियं—उपस्थित हुए तर्हि - वहाँ- - उस यज्ञ में सन्तं - विद्यमान जायगो - याजक — विजयघोष पडिसेहए - निषेध करता है ते-तुझे भिक्खं - भिक्षा हु- निश्चय ही न दाहामि नहीं दूँगा भिक्खू - हे भिक्षु ! अन्नओअन्य स्थान से जायाहि-याचना करो । ११०४ ] मूलार्थ - जब जयघोष मुनि उस यज्ञ में भिक्षा के लिए उपस्थित हुआ, तब यज्ञ करने वाले विजयघोष ने प्रतिषेध करते हुए कहा कि हे भिक्षु ! मैं तुझे भिक्षा नहीं दूंगा । अतः तुम अन्यत्र कहीं जाकर याचना करो । टीका - जिस समय जयघोष मुनि भिक्षा के लिए उस यज्ञ में उपस्थित हुए, तब यज्ञ के अधिष्ठाता विजयघोष ने उनको भिक्षा देने से साफ इनकार कर दिया । विजयघोष के शब्दों को देखते हुए उस समय याजक लोगों का मुनियों के ऊपर कितना असद्भाव था, यह स्पष्ट रूप से झलक रहा है, जो कि उस समय की बढ़ी हुई साम्प्रदायिकता का द्योतक है। यहाँ पर 'हु' शब्द एवार्थक है । यथा— 'नैव दास्यामि ते भिक्षाम्' तुझे भिक्षा किसी तरह पर भी नहीं दूँगा, इत्यादि । अस्तु, इस प्रकार का अवहेलनासूचक उत्तर देने के अनन्तर यज्ञशाला में प्रस्तुत किये गये भोज्य पदार्थों का निर्माण किनके लिए है तथा कौन २ पुरुष इस अन्न के अधिकारी हैं इत्यादि बातों का वर्णन विजयघोष ने जिस प्रकार से किया, अब उसका उल्लेख करते हैं जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया । जो संगविऊ जे य, जे य धम्माण पारगा ॥७॥ जे समत्था समुत्तुं, परमप्पाणमेव तेसिं अन्नमिणं देयं, भो भिक्खु सव्वकामियं ॥८॥ ये च वेदविदो विप्राः, यज्ञार्थाश्च ये ज्योतिःशास्त्रांगविदो ये च ये च धर्माणां ये समर्थाः समद्ध परमात्मानमेव तेभ्योऽन्नमिदं देयं, भो भिक्षो ! सर्वकाम्यम् ॥८॥ च । द्विजाः । पारगाः ॥७॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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