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________________ १०६६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्विंशाध्ययनम् वा अशुभ अर्थों से निवृत्ति के लिए है । तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काया के शुभ अथवा अशुभ योगों के निरोधार्थ ही शास्त्रकार ने तीनों गुप्तियों का विधान किया है । जैसे कि, जब गुप्ति होती, तब योग निर्व्यापार हो जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि समिति का प्रयोजन चारित्र में प्रवृत्ति कराना और गुप्ति का प्रयोजन योगों का निरोध करना है। जैसे कि गन्धहस्ति भाष्य में कहा है-'सम्यगागमानुसारेणारक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोव्यापारः, कायव्यापारः वाग्व्यापारश्च निर्व्यापारता वा वाक्काययोर्गुप्तिः' अर्थात् आगमानुसार जो राग-द्वेषरहित परिणामों का मन के साथ सहचार है, उसकी निवृत्ति करना । उसे ही गुप्ति कहते हैं । इसी प्रकार वाक् और काय के विषय में जान लेना चाहिए । सारांश यह है कि—योगों का निर्व्यापार होना ही गुप्ति है । इस गाथा के चतुर्थ चरण में 'सुप्' का व्यत्यय किया गया है अर्थात् पंचमी के स्थान-अर्थ में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया है । 'अपि' शब्द चरणप्रवृत्ति का वाचक है । 'च' शब्द इसलिए दिया है कि उपलक्षण से अशुभ के साथ शुभ अर्थों का भी समुच्चय-ग्रहण हो सके । अर्थशब्द, यहाँ पर शुभाशुभ परमाणुओं का वाचक ही जानना चाहिए। अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए उसकी फलश्रुति का भी दिग्दर्शन कराते हैं । यथा एयाओ पवयणमाया, जेसम्मं आयरे मुणी। सो खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए ॥२७॥ त्ति बेमि। इति समिईओ चउवीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥२४॥ एताः प्रवचनमातृः, यः सम्यगाचरेन्मुनिः । स क्षिप्रं सर्वसंसारात्, विप्रमुच्यते पण्डितः ॥२७॥ इति ब्रवीमि । इति समितयश्चतुर्विंशमध्ययनं समाप्तम् ॥२४॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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