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________________ VA । चतुर्विंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [१०६३ . पदार्थान्वयः-संरम्भ-संरम्भ समारम्भे-समारम्भ य-और तहेव-उसी प्रकार आरम्भे-आरम्भ में य-पुनः पवत्तमाणं-प्रवृत्त हुए वयं-वचन को तु-निश्चय जयं-यतना वाला जई-यति नियत्तेज-निवृत्त करे। ... मूलार्थ-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त हुए वचन को संयमशील साधु निवृत्त करे। टीका-प्रस्तुत गाथा में वचनगुप्ति के विषय का वर्णन है । संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त हुई वाणी को रोकना वचनगुप्ति है । परजीवों के विनाशार्थ क्षुद्र मंत्रादि के परावर्तन रूप संकल्पों के द्वारा उत्पन्न हुई जो सूक्ष्म ध्वनि है, " वह संकल्प रूप शब्द का वाच्य है। उसी को वचनसंरम्भ कहते हैं। परपरिताप करने वाले मंत्रादि का जो परावर्तन है, वह समारम्भ है। किसी के लिए हानिकारक वचनों का प्रयोग करना और आक्रोशयुक्त शब्दों का व्यवहार भी समारम्भ के अन्तर्गत है । और तथाविध संक्लेश के द्वारा अन्य प्राणियों के प्राण व्यपरोपण करने के लिए जो मंत्रादि का जप करना है, उसे आरम्भ कहते हैं। इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ से वचन के योग को हटाकर वचनगुप्ति का सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए, इत्यादि । ___ अब कायगुप्ति के विषय में कहते हैं ठाणे निसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । - उल्लंघणपल्लंघणे , इन्दियाण य जुंजणे ॥२४॥ स्थाने निषीदने चैव, तथैव च त्वग्वर्तने । उल्लंघने प्रलंघने, इन्द्रियाणां च योजने ॥२४॥ पदार्थान्वयः-ठाणे-स्थान में निसीयणे-बैठने में च-समुच्चय में एवपादपूर्ति में तहेव-उसी प्रकार तुयट्टणे-शयन करने में उल्लंघण-उलंघन य-और पल्लंघणे-प्रलंघन में य-तथा इंदियाण-इन्द्रियों को जुंजणे-जोड़ने में। __मूलार्थ-स्थान में, बैठने में तथा शयन करने में, लंघन और प्रलंघन में एवं इन्द्रियों को शब्दादि विषयों के साथ जोड़ने में यतना रखनी-विवेक रखना चाहिए।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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