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________________ वाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०८१ 1 टीका - भाषासमिति के अनन्तर अब सूत्रकार एषणासमिति का वर्णन करते हैं । एषणा का अर्थ है उपयोगपूर्वक विचार करना । उसके गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोषणा ये तीन भेद हैं । गवेषणा – आहार आदि की इच्छा के निमित्त गोचरी — गोवत् चर्या में प्रवृत्त होना गवेषणा है । ग्रहणैषणा — विचारपूर्वक निर्दोष आहार का ग्रहण करना ग्रहणैषणा है । परिभोगेषणा — जब आहार करने का समय हो, तब आहारसम्बन्धी निन्दा-स्तुति से रहित होकर आहार करना परिभोषणा कहलाती है। इसके अतिरिक्त उपधि और शय्या आदि के विषय में भी इन. तीनों एषणाओं की शुद्धि रखनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भिक्षा के अन्वेषण, ग्रहण और भक्षण में एषणासमिति की आवश्यकता है उसी प्रकार उपधि — उपकरण और शय्या — उपाश्रय और तृणसंस्तारकादि के विषय में भी एषणासमिति को व्यवहार में लाना चाहिए। सारांश यह है कि निर्दोष आहार, उपधि और शय्या आदि के ग्रहण में साधु को हेयोपादेय आदि सब बातों का पूरा विचार कर लेना चाहिए । यद्यपि सामान्य रूप से एषणा' इच्छा का नाम है तथापि निर्दोष पदार्थों के देखने या ग्रहण करने में शास्त्रविधि के अनुसार विचारपूर्वक जो प्रवृत्ति है, उसी को यहाँ पर एषणा शब्द से व्यवहृत किया गया है । ' आहारोवहिसेज्जाए' इस वाक्य में वचन - व्यत्यय और 'तिन्नि' पद् में लिङ्गव्यत्यय है, जो कि प्राकृत के नियम से है । अब आहारादि की शुद्धि का प्रकार बतलाते हैं। यथा उग्गमुप्पायणं पढमे, सोहेज एसणं । बी परिभोयम्मि चउक्कं, विसोहेज जयं जई ॥१२॥ उद्गमनोत्पादनदोषान् प्रथमायां, द्वितीयायां शोधयेदेषणादोषान् । परिभोगैषणायां चतुष्कं विशोधयेद यतमानो यतिः ॥ १२॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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