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________________ २०७४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्विंशाध्ययनम् PION 1 7 . . . . . . . . . . जिनभाषित द्वादशांग रूप समग्र प्रवचन-आगम-समाया हुआ है । तात्पर्य यह है कि ये आठों सारे जिनप्रवचन के मूल स्थान हैं । अथवा यों कहें कि यह संक्षेप से इनका नामनिर्देश मात्र कर दिया है और विशेष रूप से इनका निर्वचन तो समग्र जिनप्रवचन है अर्थात् द्वादशांग रूप समग्र जैनागम इनकी व्याख्या स्वरूप है । यथा-ईर्यासमिति में प्राणातिपातविरमण-अहिंसा-व्रत का समवतार होता है और भाषासमिति में समाये हुए सत्यव्रत में सर्व द्रव्य और सर्व पर्यायों का समवतरण हो जाता है क्योंकि जब तक समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों के स्वरूप का बोध नहीं होता, तब तक सत्य का यथार्थ भाषण नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य समितियों के विषय में विचार कर लेना चाहिए । ज्ञानदर्शन के अविनाभावी होने से चारित्र भी इनके सहगत ही है । इस प्रकार जब कि इन तीनों का आठ प्रवचन माताओं में समावेश है तो फिर और कौन-सा विषय शेष रह जाता है कि जो इनके अन्तर्भूत न हो सकता हो । इसलिए ये आठों प्रवचन माता के नाम से अभिहित किये गये हैं। __अब अनुक्रम से इनकी व्याख्या करते हुए प्रथम ईर्यासमिति का वर्णन करते हैं । यथा आलम्बणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य। चउकारणपरिसुद्ध , संजए इरियं रिए ॥४॥ आलम्बनेन । कालेन, मार्गेण यतनया च । ... चतुष्कारणपरिशुद्धां , संयत ईयाँ रीयेत ॥४॥ • पदार्थान्वयः-आलम्बणेण-आलम्बन से कालेण-काल से मग्गेण-मार्ग से य-और जयणाइ-यतना से चउकारण-चार कारण से परिसुद्धं-परिशुद्ध इरियंईर्या को संजए-संयत पुरुष रिए-प्राप्त करे। मूलार्थ-आलम्बन, काल, मार्ग और यतना इन चार कारणों की परिशुद्धि से संयत-साधुगति को प्राप्त करे या गमन करे । टीका-इस गाथा में ईर्यासमिति के लक्षण और स्वरूप का वर्णन किया गया है । ईा नाम गति या गमन का है अर्थात् गमन करते समय आलम्बन,
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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