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________________ त्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०५५ ___टीका-केशीकुमार के प्रश्न को सुनकर गौतम स्वामी ने कहा कि संसार रूप महासमुद्र में जरा-मरण रूप जल है, जिसके प्रबल प्रवाह में ये प्राणी बह रहे हैं। उन बहते अर्थात् डूबते हुए प्राणियों को आश्रय देने वाला धर्म [ श्रुतचारित्र रूप] ही महाद्वीप है। जिस समय संसारी जीव जन्म, जरा और मरण तथा आधि-व्याधि रूप जलराशि के महान वेग में बहते हुए व्याकुल हो उठते हैं, उस समय इस धर्म रूप महाद्वीप की शरण में जाने से अर्थात् उसको प्राप्त कर लेने से उनकी रक्षा हो जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि फिर वे उक्त जल के भयंकर वेग से त्रास को प्राप्त नहीं होते । यहाँ पर जन्म, जरा और मृत्यु को समुद्र-जल के समान कहा है और श्रुत चारित्र रूप धर्म को महाद्वीप बतलाया है । इसका तात्पर्य यह है कि जैसे महाद्वीप में जल के वेग का प्रवेश नहीं होता, तद्वत् श्रुत और चारित्र रूप महाद्वीप में जन्म, जरा और मृत्यु आदि भी प्रविष्ट नहीं हो सकते । कारण मोक्ष में इनका सर्वथा अभाव है। इसलिए संसार रूप समुद्र के जरा-मरणादि रूप जलप्रवाह में बहते हुए प्राणियों को इसी धर्म रूप महाद्वीप का सहारा है और इसी की शरण में जाना परमोत्तम है। इस प्रकार गौतम स्वामी का उत्तर सुनकर केशीकुमार ने कहा किसाहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नोऽवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥६९॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥६९॥ टीका-इस गाथा का अर्थ पहले की गाथाओं के समान ही है। इस प्रकार न द्वार का वर्णन हो चुका । अब प्रश्न के दशवे द्वार का प्रस्ताव करते हैं । दशवें प्रश्न के प्रस्ताव में संसार-समुद्र से पार होने के उपायों या साधनों के विषय में प्रश्नोत्तर रूप से बड़े मनोरंजक विषय का उल्लेख किया गया है। यथा अण्णवंसि महोहंसि, नावा विपरिधावई। जंसि गोयममारूढो, कहं पारंगमिस्ससि ॥७॥ .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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