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________________ {08 ] [ त्रयोविंशाध्ययनम् 1 वश में किया [ यही उसका जीतना है ]। मन के वशीभूत हो जाने पर उक्त चारों कषाय भी वश में हो गये, और जब कषायों को जीत लिया तब पाँचों इन्द्रियाँ भी शीभूत हो गई । इनके वश में आने से अन्य सब नोकषाय आदि शत्रुओं को मैंने परास्त कर दिया । इस प्रकार न्यायपूर्वक समस्त शत्रुवर्ग पर विजय प्राप्त करके मैं निर्भय होकर विचरता हूँ । यह गौतम स्वामी का, केशी मुनि के प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है । जैसे कि ऊपर बतलाया गया है कि प्रथम एक को जीता, फिर चार पर विजय प्राप्त की । इस प्रकार जब पाँचों को जीत लिया, तब दश जीते गये और दश के जीतने से बाकी के भी सब शत्रु परास्त हो गये, इत्यादि कथन का जो रहस्य था उसका स्पष्टीकरण प्रस्तुत गाथा के द्वारा किया गया है। यदि संक्षेप में कहा जा तो इतना ही है कि आत्मा अर्थात् मन के जीतने से ही सब पर विजय पाई जा 'सकती है। 'मनजीते जगजीत' यह लोकोक्ति भी इसी रहस्य का उद्घाटन कर रही है। गौतम स्वामी के उक्त उत्तर को सुनकर केशकुमार ने सन्तोष प्रकट करते हुए उनसे फिर कहा कि 1 उत्तराध्ययनसूत्रम् साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ ३९ ॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥ ३९ ॥ टीका - इस गाथा का अर्थ और भाव पूर्व की भाँति ही है । पूर्व शैली के अनुसार इस चतुर्थ द्वार में केशीकुमार मुनि अब पाशबद्ध जीवों के विषय में प्रश्न करते हैं— 1 दीसन्ति बहवे लोए, पासबद्धा सरीरिणो । मुक्कपासो लहुब्भूओ, कहं तं विहरसी मुणी ! ॥४०॥ दृश्यन्ते बहवो लोके, पाशबद्धाः शरीरिणः । मुक्तपाशो लघुभूतः, कथं त्वं विहरसि मुने ! ॥४०॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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