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________________ Vvvvvvvvvvv १०३० ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् भरतादि अनेक भव्य जीवों को साधु के बाह्य वेष के बिना ही केवलज्ञान की उत्पत्ति हो गई । इसलिये निश्चय में दोनों ही महापुरुषों की यही एक प्रतिज्ञा है कि बाह्य वेष, मोक्ष साधना में कोई सर्वथा आवश्यक वस्तु नहीं है और व्यावहारिक दृष्टि में दोनों की वेष विषयक सम्मति समयानुसार है अतः इसमें विप्रत्यय-अविश्वास को कोई स्थान नहीं है। कारण कि वास्तविक प्रतिज्ञा दोनों की समान है। गौतम मुनि के इस उत्तर को सुनकर, केशीकुमार ने जो कुछ कहा अब उसका वर्णन करते हैं साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो। .. अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥३४॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम्। . अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥३४॥ टीका-इस गाथा का पदार्थ और मूलार्थ पूर्व की २८वीं गाथा के विवरण में आ चुका है। इन दोनों का पाठ एक ही है अतः यहाँ पर नहीं लिखते। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा में केशीकुमार ने उत्तर की स्वीकारता, अपनी निरभिमानता और गौतम स्वामी के ज्ञान की प्रशंसा आदि करते हुए अपने सत्पुरुषोचित गुणों का जिस उदारभाव से परिचय दिया है वह उन्हीं के अनुरूप है । विशेष—धर्म का विषय और लिंगभेद का विषय इन दोनों विषयों के सम्बन्ध में शिष्यवर्ग के अन्तःकरण में जो शंका उत्पन्न हुई थी उसका तो सैद्धान्तिक दृष्टि से निराकरण हो गया, और शिष्यवर्ग भी सब प्रकार से निःशंकित हो गया। तात्पर्य यह है कि जिस प्रयोजन को लेकर इस शास्त्रार्थ का आरम्भ किया गया था वह तो सिद्ध हो चुका अब तो उसकी आवश्यकता नहीं रही। परन्तु इस धर्मवाद-धर्मचर्चा में जो श्रावस्ती नगरी के अनेक सद्गृहस्थ उपस्थित हुए थे उनको भी धर्म का कुछ लाभ मिल जावे, इस आशय से केशीकुमार मुनि अब तीसरे प्रश्न को प्रस्तावित करते हैं। ताकि सभा में उपस्थित हुई अन्य जनता भी कुछ धर्म का सन्देश लेकर जावे। - केशीकुमार श्रमण ने, तीसरे द्वार में गौतम स्वामी के प्रति जिस प्रश्न को. उपस्थित किया अब उसका वर्णन करते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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