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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् [द्वाविंशाध्ययनम् । wwwnwA तस्याः स वचनं श्रुत्वा, संयतायाः सुभाषितम् । अङ्कशेन यथा नागः, धर्मे सम्प्रतिपादितः ॥४७॥ "पदार्थान्वयः-सो-वह रथनेमि तीसे-उस राजीमती के वयणं-वचन को सुच्चा-सुनकर संजईए-संयमशीला के सुभासियं-सुभाषित को अंकुसेण-अंकुश से जहा-जैसे नागो-हस्ती सीधा हो जाता है तद्वत् धम्मे-धर्म में संपडिवाइओस्थिर कर दिया। मूलार्थ-स्थनेमि ने संयमशीला राजीमती के पूर्वोत सुभाषित वचनों को सुनकर अंकुश द्वारा मदोन्मत्त हस्ती की तरह अपने आत्मा को वश में करके फिर से धर्म में स्थित कर लिया। टीका-प्रस्तुत गाथा में, रथनेमि के आत्मा पर सती राजीमती के सुभाषित वचनों का जो विलक्षण प्रभाव पड़ा तथा पतन की ओर बढ़ती उसकी आत्मा किस प्रकार रुक गई, इस बात का वर्णन बड़े मनोरंजक शब्दों में किया गया है। संयमशीला राजीमती के पूर्वोक्त समुचित संभाषण को सुनकर रथनेमि ने पतन की ओर जाते हुए अपने आत्मा को उधर से हटाकर धर्म-संयमवृत्ति—में इस प्रकार स्थापित कर दिया, जैसे बेकाबू हुए मदोन्मत्त हस्ती को उसका महावत अंकुश के द्वारा वश में लाकर एक कीले से बाँध देता है । तात्पर्य यह है कि रथनेमि के प्रमादी आत्मा को अप्रमत्त बनाने के लिए सती राजीमती के उपदेश ने हस्ती को वश में करने वाले अंकुश का काम किया । सत्य है । आदर्श जीवन वाले व्यक्तियों के उपदेश का ऐसा ही विलक्षण प्रभाव होता है । उनके उपदेश से अनेकानेक पतित आत्माओं का उद्धार होता है। तब रथनेमि के आत्मा पर सती राजीमती के उपदेश का जो विचित्र प्रभाव पड़ा, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। - अब राजीमती के उक्त उपदेश से पुनः धर्म में आरूढ हुए रथनेमि के विषय में कहते हैंकोहं माणं निगिण्हित्ता, माया लोभं च सव्वसो। इंदियाई वसे काउं, अप्पाणं . उपसंहरे ॥४८॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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