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________________ द्वाविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [८३ मूलार्थ-तदनन्तर समुद्रविजय के अंग से उत्पन्न होने वाला वह राजपुत्र-रथनेमि डरती और कांपती हुई राजीमती को देखकर इस प्रकार कहने लगा। टीका-रथनेमि समुद्रविजय का पुत्र और भगवान् नेमिनाथ का छोटा भाई था। वह भी भगवान के साथ ही दीक्षित हो गया था और धर्मध्यान के लिए उस गुफा में विराजमान था । राजपुत्र कहने से उसकी कुलीनता ध्वनित की गई है। रथनेमि साधु ने सती राजीमती से क्या कहा, अब इसका उल्लेख करते हैंरहनेमी अहं भद्दे ! सुरूवे ! चारुभासिणी! ममं भयाहि सुअणु ! न ते पीला भविस्सई ॥३७॥ रथनेमिरहूं भद्रे ! सुरूपे ! चारुभाषिणि ! मां भजख सुतनो ! न ते पीडा भविष्यति ॥३७॥ ____ पदार्थान्वयः-रहनेमी-रथनेमि अहं-मैं हूँ भद्दे-हे भद्रे ! सुरूवे-हे सुन्दर रूप वाली ! चारुभासिणी-मनोहर भाषण करने वाली ! ममं-मुझे भयाहि-सेवन कर सुअणु-हे सुन्दर शरीर वाली ! न-नहीं ते-तेरे को पीला-पीडा भविस्सई-होगी अर्थात् विषय के सेवन करने से। मूलार्थ हे भद्रे ! मैं रथनेमि हूँ। अतः हे सुन्दरि! हे मनोहरभाषिणि ! हे सुन्दर शरीर वाली ! तुम मुझको सेवन करो । तुम्हें किसी प्रकार की भी पीड़ा नहीं होगी। टीका-इस गाथा में रथनेमि ने राजीमती को अपना परिचय देते हुए उसे निर्मय करने का प्रयत्न किया है। इसमें उसका जो अभिप्राय है, वह स्पष्ट है । वह कहता है कि मैं राजपुत्र हूँ और रथनेमि मेरा नाम है और तू भी परम सुन्दरी है। इसलिए निर्भय होकर तू मेरे समागम में आ जा । तुम्हें किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं होगा। राजकुमार रथनेमि ने अपना परिचय देते हुए अपने अभिप्राय को भी स्पष्ट शब्दों में सती राजीमती के सामने रख दिया ताकि उसको विश्वास हो जाय कि मैं निर्भय हूँ और रतिजन्य सुख परम आनन्द का जनक है।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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