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________________ ६७४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ द्वाविंशाध्ययनम् 1 चारित्र और तप तथा क्षमा एवं मुक्ति निर्लोभता आदि सद्गुण सदा वृद्धि को ही पाते रहें । यहाँ पर जो ज्ञान शब्द प्रथम ग्रहण किया है, उसका कारण यह है कि विशेष धर्म में सामान्य धर्म का बोध भी हो ही जाता है। ज्ञान विशेषग्राही और दर्शन सामान्यग्राही माना गया है । अपरंच, सम्यग्दर्शन बिना ज्ञान का ही होना दुर्घट है । अत: ज्ञान की सफलता सम्यग्दर्शनपूर्वक ही मानी गई है। सो जब ज्ञान हुआ, तब चारित्र, तप, क्षमा और निर्ममत्वादि का होना अनिवार्य है अर्थात् ये सब सहज ही में धारण किये जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी पुरुष जिस समय प्रत्येक पदार्थ के गुणों और पर्यायों को समझ लेता है, तब उसका हेयोपादेय विषयक जो विचार होता है, वह पूर्ण रूप से तथ्य होता है। इस प्रकार आशीर्वाद देने के अनन्तर वे वासुदेवादि समस्त पुरुष भगवान् नेमिनाथ को वन्दना करके अपनी द्वारकापुरी की ओर प्रस्थित हुए, अब इस बात का वर्णन करते हैं-. एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहूजणा । अरिट्टनेमिं वंदित्ता, अइगया बारगाउरिं ||२७|| एवं तौ रामकेशवौ, दशार्हाश्च बहुजनाः । अरिष्टनेमिं वन्दित्वा, अतिगता द्वारकापुरीम् ॥२७॥ पदार्थान्वयः — एवं - इस प्रकार तै- वह दोनों रामकेसवा - राम और केशव दसारा - यादवों का समूह य और बहूजणा - अन्य बहुत से पुरुष अरिट्ठनेमिं - अरिष्टनेमि भगवान् को वंदित्ता - वन्दना करके बारगाउरिं- द्वारकापुरी को अइगयावापस चले आये । मूलार्थ - इस प्रकार वे दोनों राम और केशव, यादववंशी तथा अन्य बहुत से पुरुष भगवान् अरिष्टनेमि को वन्दना करके द्वारकापुरी को 'वापस आ गये। टीका - इस प्रकार आशीर्वाद वचन कहने के अनन्तर बलराम और वासुदेव, अन्य यादवकुल के लोग तथा उग्रसेन आदि बहुत से प्रधान पुरुष, भगवान् अरिष्टनेमि .. को वन्दना करके वापस द्वारकापुरी में आ गये । इस कथन से भगवान नेमिनाथ
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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