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________________ ६६६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ द्वाविंशाध्ययनम् होता, अथवा दशार्ह शब्द का ही उल्लेख कर दिया होता। इसलिए सेना में, साथ आने वाले इतर पुरुषों को उद्देश्य में रखकर ही यह उक्त वर्णन किया हुआ प्रतीत होता है । 'तु' शब्द यहाँ पर निश्चयार्थक है, जिसका अर्थ यह होता है कि बहुजन भोजनार्थ वहाँ पर हरिण आदि भद्र जीव ही एकत्रित किये गये थे, न कि हिंस्र जीव भी । अपराधशून्य और अहिंसक तथा सरल होने के कारण इनको भद्र कहा गया है । सारथि के उक्त वचन को सुनकर परम दयालु राजकुमार अरिष्टनेमि ने अपने मन में जो कुछ विचारा तथा तदनुकूल आचरण किया, अब इसी विषय में कहते हैं 1 सोऊण तस्स वयणं, बहुपाणिविणासणं चिन्तेइ से महापन्ने, साणुक्कोसे जिएहि ऊ ॥ १८ ॥ वचनं, बहुप्राणिविनाशनम् 1 श्रुत्वा तस्य चिन्तयति सः महाप्राज्ञः सानुक्रोशो जीवेषु तु ॥१८॥ , पदार्थान्वयः ——– सोऊण – सुनकर तस्स - उस सारथि के वय - वचन बहुपाणिविणासणं- बहुत से प्राणियों का विनाशन रूप से वह महापन्ने — महाबुद्धिशाली मानुकोसे-क - करुणामय हृदय जिएहि - जीवों में हित का विचार करने वाले चिन्ते - मन में चिन्तन - विचार - करते हैं । मूलार्थ - उस सारथि के बहुत से प्राणियों के विनाशसम्बन्धी वचन को सुनकर दयार्द्रहृदय और महाबुद्धिमान् राजकुमार मन में विचारने लगे । टीका - सारथि ने जिस समय यह कहा कि इन प्राणियों का वध किया जायगा, तब राजकुमार का हृदय एकदम करुणा से उमड़ आया और वे मन में इस प्रकार विचार करने लगे । तात्पर्य यह है कि जिनके हृदय में दया का भाव होता है, वे ही पुरुष अन्य जीवों के हिताहित का विचार किया करते हैं और अरिष्टनेमि कुमार तो 'साक्षात् दया के अवतार ही थे । अतः उन अनाथ जीवों के अकारण वध से उनके अन्तःकरण में चिन्ता का उत्पन्न होना सर्वथा उपयुक्त ही है । इसी भाव को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत गाथा में 'सानुक्रोश' पद दिया गया है। 'चिन्तयति’ ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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