SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४८] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकविंशाध्ययनम् vv wwwwwwwwwwwwwww का कल्याण निहित है । समुद्रपाल ऋषि ने इसी मार्ग का अनुसरण किया, इसी प्रकार की निरवद्य प्रवृत्ति का आचरण किया और इसी के प्रभाव से वह सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद को प्राप्त हुए। ____ इस प्रकार संयमवृत्ति का आराधन करते हुए समुद्रपाल मुनि किस पद को प्राप्त हुए, अब इस विषय में कहते हैं स णाणनाणोवगए महेसी, ___ अणुत्तरं चरित्रं धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधरे जसंसी, ओभासई सूरि एवंऽतलिक्खे ॥२३॥ स ज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः, ___ अनुत्तरं चरित्वा धर्मसञ्चयम् । अनुत्तरो ज्ञानधरो यशखी, स पशखा, ___ अवभासते सूर्य इवान्तरिक्षे ॥२३॥ पदार्थान्वयः-स-वह समुद्रपाल महेसी-महर्षि एणाण-श्रुतज्ञान से नाणोवगए-पदार्थों के जानने से उपगत होकर अणुत्तरं-प्रधान धम्मसंचय-क्षमादि धर्मों का संचय चरिउं-आचरण करके अणुत्तरे-प्रधान नागधरे-केवल ज्ञान के धरने वाला जसंसी-यशस्वी—यश वाला सूरि एव-सूर्यवत् ओभासई-प्रकाशमान है अंतलिक्खे-अन्तरिक्ष-आकाश में। मूलार्थ-समुद्रपाल ऋषि श्रुतज्ञान के द्वारा पदार्थों के स्वरूप को जानकर और प्रधान-क्षमादि-धर्मों का संचय करके, केवल ज्ञान से उपयुक्त होकर अन्तरिक्ष में-आकाशमंडल में प्रकाशित होने वाले सूर्य की भाति अपने केवलज्ञान द्वारा प्रकाश करने लगा। टीका-प्रस्तुत गाथा में समुद्रपाल ऋषि की ज्ञानसम्पत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। वह समुद्रपाल ऋषि, प्रथम श्रुतज्ञान के द्वारा संसार के हर एक
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy