SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकविंशाध्ययनम् . आदि धर्मों का भी सम्यक्तया आचरण करे । क्योंकि जीवन्मुक्ति के आनन्द की प्राप्ति इन्हीं के आचरण पर निर्भर है। इसलिए विद्वान् को उक्त मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए। अब फिर उक्त विषय में ही कहते हैंसव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी, खंतिक्खमे. संजयबंभयारी। सावजजोगं परिवजयंतो, चरिज भिक्खू सुसमाहिइंदिए ॥१३॥ सर्वेषु भूतेषु दयानुकम्पी, क्षान्तिक्षमः संयतब्रह्मचारी। सावद्ययोगं परिवर्जयन्, चरेद् भिक्षुः सुसमाहितेन्द्रियः ॥१३॥ पदार्थान्वयः-सव्वेहि-सर्व भृएहि-भूतों में दयाणुकंपी-दया के द्वारा अनुकम्पा करने वाला खंतिक्खमे-क्षांतिक्षम संजय-संयत बंभयारी-ब्रह्मचारी सावजजोग-सावद्य व्यापार को परिवजयंती-छोड़ता हुआ चरिज-आचरण करे भिक्खू–साधु सुसमाहिइंदिए-सुन्दर समाधि वाला और इन्द्रियों को वश में रखने वाला। ____ मूलार्थ-सर्वभूतों पर दया के द्वारा अनुकम्पा करने वाला, चांतिक्षम, संयत, ब्रह्मचारी, समाधियुक्त और इन्द्रियों को वश में रखने वाला भिक्षु सर्वप्रकार के सावध व्यापार को छोड़ता हुआ धर्म का आचरण करे । टीका-प्रस्तुत गाथा में भी भिक्षु के कर्तव्य का ही निर्देश किया गया है। जैसे कि भिक्षु दयायुक्त होकर सब जीवों पर अनुकम्पा करने वाला होवे तथा यदि कोई प्रत्यनीक, दुर्वचनादि का प्रयोग भी करे तो उसको भी शांतिपूर्वक सहन कर लेवे अर्थात् बदला लेने की भावना न रक्खे । एवं सावद्य-पापमय–व्यापार का परित्याग करता हुआ श्रेष्ठ समाधियुक्त और इन्द्रियों को जीतने वाला होकर धर्म का
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy