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________________ ६३४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [एकविंशाध्ययनम् अब दीक्षित हुए समुद्रपाल के विषय में कहते हैंजहित्तु संगं च महाकिलेसं, महन्तमोहं कसिणं भयाणगं।। परियायधम्मं चभिरोयएखा, वयाणि सीलाणि परीसहे य ॥११॥ हित्वा संगं च महाक्लेश, महामोहं कृत्स्नं भयानकम् । पर्यायधर्म चाभिरोचयति, व्रतानि शीलानि परीषहाँश्च ॥११॥ पदार्थान्वयः-जहित्तु-छोड़कर संग-संग को जो महाकिलेसं-महालेश रूप है और महन्तमोह-महामोह तथा कसिणं-संपूर्ण भयाणगं-भयों को उत्पादन करने वाला च-और परियाय-प्रव्रज्या रूप धम्म-धर्म में अभिरोयएजा-अभिरुचि करता हुआ वयाणि-व्रत सीलाणि-शील य-और परीसहे-परिषहों को सहन करने लगा। यहाँ 'च' और 'अर्थ' शब्द पादपूर्ति के लिए हैं। ___मूलार्थ-महामोह और महाक्लेश तथा महाभय को उत्पन्न करने वाले स्वजनादि के संग को छोड़कर वह समुद्रपाल प्रव्रज्यारूप धर्म में अभिरुचि करने लगा, जो कि व्रतशील और परिषहों के सहन रूप है। टीका-दीक्षित होने के अनन्तर समुद्रपाल ने अपने स्वजनादि के संग का परित्याग कर दिया । कारण यह है कि संग से महाकेश, महान् मोह और समस्त प्रकार के भयों की उत्पत्ति होती है। अतः संग का परित्याग करके उसने प्रव्रज्यारूप धर्म में प्रवृत्ति कर ली अर्थात् पाँच महाव्रत तथा पिंडविशुद्धि आदि शील और परिषह आदि के सहन रूप जो प्रव्रज्या धर्म है, उसका वह निरन्तर सेवन करने लगा। प्रत्येक संयमशील पुरुष को चाहिए कि वह अहर्निश अपने आत्मा को इस प्रकार से शासित करता रहे। यथा-हे आत्मन् ! तू संग का परित्याग करके प्रव्रज्यारूप धर्म में
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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