SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwnwww wam चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [६०३ नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात् , ____ अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः । अध्यात्महेतुर्नियतस्य बन्धः , संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ॥१९॥ पदार्थान्वयः-आत्मा नो-नहीं है. इंदियग्गेज्म-इन्द्रियग्राह्य अमुत्तभावाअमूर्त होने से य-और अमुत्तभावावि-अमूर्तभाव होने पर भी निचो-नित्य होइ-है अज्झत्थहेऊं-अध्यात्महेतु-मिथ्यात्वादि नियय-निश्चय ही अस्स-इस जीव के बंधो-बन्ध के कारण हैं च-और संसारहेउ-संसार का हेतु बंधबन्ध को वयंति-कहते हैं। मूलार्थ-अमूर्त होने के कारण यह आत्मा इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता और अमूर्त होने से ही यह नित्य है, तथा अध्यात्महेतुमिथ्यात्वादि निश्चय ही बन्ध है और बन्ध को ही संसार का हेतु कहा है । टीका-भृगु पुरोहित के उक्त दोनों कुमारों ने पिता के नास्तिकवादअनात्मवाद का इस गाथा के शब्दों द्वारा युक्तिपूर्ण और बड़ी ही सुन्दरता से निराकरण किया है । इस विषय का संक्षेप से विवरण इस प्रकार से है-भृगु पुरोहित ने पूर्व कहा है कि जैसे अग्नि आदि पदार्थ पूर्व असत् होते हुए काष्ठादि से उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं उसी प्रकार यह जीव भी इस शरीर से पूर्व असत् होता हुआ उत्पन्न होता है । तात्पर्य कि असत् की भी उत्पत्ति संभव है। अतः यह आत्मा-चेतनसत्ता शरीर का ही एक विकास रूप गुण या विकार विशेष है, कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं । इसका समाधान यह है कि असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती अर्थात् असत् कभी उत्पन्न नहीं होता । किन्तु सत् ही उत्पन्न होता है । इसलिए काष्ठ में अग्नि, दुग्ध में घृत और तिलों में तेल पहले ही से विद्यमान है। तभी वे इनसे-अपने नियत कारण काष्ठादि से उत्पन्न होते हैं । और यदि असत् की भी उत्पत्ति मानी जावे तब तो घृत की इच्छा रखने वाले को दूध के लिए किसी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहती, वह जल विलोडन कर भी उससे घृत को प्राप्त कर सकेगा। तात्पर्य कि जैसे दुग्ध में पहले घृत नहीं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy