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________________ २४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् - इतरोऽपि गुणसमृद्धः, त्रिगुप्तिगुप्तस्त्रिदण्डविरतश्च विहंग इव विप्रमुक्तः, विहरति वसुधायां विगतमोहः ॥ ६० ॥ इति ब्रवीमि । [ विंशतितमाध्ययनम् इति महानिर्यंथीयं विंशतितममध्ययनं समाप्तम् ॥२०॥ पदार्थान्वयः –— इयरो वि- इतर — मुनि भी गुणसमिद्धो- गुणों से समृद्ध तिगुत्तिगुत्तो - तीन गुप्तियों से गुप्त य-और तिदण्डविरओ-तीन दंडों से विरत विहग - पक्षी की इव-तरह विप्पमुक्को - विप्रमुक्त-— बन्धनों से रहित विहरइ - विचरता है वसुहं - वसुधा में विगयमोहो - विगतमोह - मोहरहित होकर । इस प्रकार मैं कहता हूँ । यह महानिर्ग्रन्थीय बीसवाँ अध्ययन समाप्त हुआ । मूलार्थ - इधर वह अनाथी मुनि भी, जो कि गुणों से समृद्ध, तीनों गुप्तियों से गुप्त और तीन दंडों से विरत थे - बन्धन से रहित हुए पक्षी की तरह विगतमोह होकर इस वसुधातल में विचरने लगे । टीका - महाराज श्रेणिक के चले जाने के बाद वह अनाथी मुनि बन्धनरहित पक्षी की भाँति विगतमोह होकर इस पृथिवी पर विचरने लगे। वह मुनि साधुजनोचित गुणों से विभूषित अतएव मन, वचन और काया को वश में रखने वाले अर्थात् मन, वचन और शरीर की गुप्तियों से गुप्त एवं त्रिदंडों से विरत थे । कि केवल ज्ञान की प्राप्ति इन्हीं पर अवलम्बित है । इसलिए उक्त मुनिराज - अनाथी मुनि ने केवल ज्ञान को प्राप्त करके अपने आत्मा को कृतकृत्य करने के अतिरिक्त पृथिवी पर विचरकर अन्य संसारी जीवों का भी बहुत उपकार किया और स्वयं मोक्ष को प्राप्त हुए । प्रस्तुत गाथा में 'विहरइ' यह वर्तमान क्रिया की प्रयुक्ति, तत्काल की अपेक्षा से की गई है। और 'त्ति बेमि' का अर्थ पहले की तरह ही जान लेना । 1 विंशतितमाध्ययन समाप्त ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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