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________________ विंशतितमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ६१५ उसको श्रवण करने के अनन्तर तू उक्त प्रकार के कुशील पुरुषों के आचार को सर्वथा हेय समझकर त्याग दे और महानिर्ग्रन्थों तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट किये हुए मार्ग का अनुसरण कर ? दूसरे शब्दों में कहें तो अनाथों के मार्ग को छोड़कर सनाथों के मार्ग पर चल । कारण यह है कि अनाथों का मार्ग बन्धन का हेतु है और सनाथों का मार्ग मोक्ष का कारण है । अतएव पहला मार्ग अप्रशस्त और विकट है, दूसरा मार्ग प्रशस्त और अत्यन्त सरल है । तथा सनाथ मार्ग पर चलने का दूसरा हेतु यह भी है कि उस पर चलने से अनाथ भी सनाथ हो जाता है, और कुशीलों-अनाथों का मार्ग सनाथ को भी अनाथ बना देता है । तात्पर्य यह है कि जो आत्मा सनाथ है, वह अनाथ को भी सनाथ बनाने की शक्ति रखता है। परन्तु जो स्वयं ही अनाथ है, वह दूसरे को सनाथ कैसे बना सकता है ? इसलिए मुमुक्षु पुरुषों को मोक्षप्राप्ति के लिए महानिर्ग्रन्थों के प्रशस्त मार्ग का ही सर्व प्रकार से अवलम्बन करना चाहिए । इसके अतिरिक्त उक्त मुनि ने अपने अनुशासन को जो सुभाषित रूप और ज्ञान युक्त कहा है, उसका अभिप्राय यह है कि उक्त अनुशासन के साक्षात् उपदेष्टा तो जिनेन्द्र भगवान् हैं, उक्त मुनि ने तो उसका केवल अनुवादमात्र किया है। अत: जिनेन्द्रभाषित होने से उक्त अनुशासन अधिक से अधिक विनय के योग्य है। अब महानिर्ग्रन्थ मार्ग के अनुसरण का जो फल है, उसका वर्णन करते हैंचरित्तमायारगुणन्निए तओ, अणुत्तरं संजम पालिया थे। निरासवे संखवियाण कम्म, उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं ॥५२॥ चारित्राचारगुणान्वितस्ततः , अनुत्तरं संयम पालयित्वा। निरास्रवः संक्षपय्य कर्म, उपैति स्थानं विपुलोत्तमं ध्रुवम् ॥५२॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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