SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् प्राप्त करता है इमे वि लोए-यह लोक भी से-उसका नत्थि-नहीं है और परे विपरलोक भी नहीं है दुहओ वि-दोनों ही प्रकार से से-वह झिज्झइ-क्षीण हुआ जाता है तत्थ-वहाँ पर लोए-उभयलोक में । ___ मूलार्थ—उसकी साधुवृत्ति में रुचि रखना व्यर्थ है कि जो उत्तम अर्थ में भी विपरीत भाव को प्राप्त होता है । उसका न तो यह लोक ही है और न परलोक । अतः वह दोनों लोकों से ही भ्रष्ट हो जाता है। टीका-प्रस्तुत गाथा में द्रव्यलिंगी-द्रव्यवृत्ति की आलोचना की गई है। उक्त मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! जिस आत्मा ने केवल द्रव्यलिंग को ही धारण कर रक्खा है, उसकी साधुवृत्ति में रुचि रखना व्यर्थ ही है, क्योंकि उसको उत्तम अर्थ का भी विपरीत रूप से भान होता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रविहित साधुजनोचित आचार में उसकी आन्तरिक श्रद्धा नहीं होती। अतः उसका न तो यह लोक ही सिद्ध होता है और न परलोक ही; किन्तु उभय लोक से ही वह भ्रष्ट हो जाता है । इस लोक में तो यह केशलुंचन आदि क्रियाओं के द्वारा—क्लेशित होता है और परलोक में नरकतिर्यंचादि गति के दुःखों को भोगता है । तथा अन्य संमृद्धिशाली पुरुषों को देखकर अपने मंद भाग्य को धिक्कारता हुआ रात-दिन चिन्तारूप चिता में जलता रहता है । इसलिए वह अनाथ है । दुराचार को सदाचार समझना और सदाचार को दुराचार मानना इत्यादि विपरीत भाव, विपर्यास कहलाता है । इस प्रकार का विपरीत ज्ञान रखने वाला जीव, संयम के रहस्य को कदापि नहीं जान सकता। इसी लिए वह संयम से पतित होता हुआ उभयलोक से भ्रष्ट हो जाता है, फिर उसकी चारित्र में होने वाली रुचि विना सार की होने से निरर्थक ही है। अब उक्त अर्थ का उपसंहार करते हुए फिर कहते हैं- . एमेव हाछन्द कुसीलरूवे, ___ मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरट्ठसोया परितावमेइ ॥५०॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy