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________________ ६०६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ विंशतितमाध्ययनम् कालकूडं-कालकूट हणाइ–हनता है वा जह-जैसे सत्थं - शस्त्र कुग्गहीयं- कुगृहीत हनता है एसो - यह धम्मो - धर्म वि-भी विसओववनो - शब्दादि विषयों से युक्त हुआ हणाइ–हनता है अविवन्नो - विना वश किये हुए वेयाल - वेताल इव की तरह | मूलार्थ - जैसे पीया हुआ कालकूट विष प्राणों का विनाश कर देता है। और उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र जैसे अपना घातक होता है, एवं जैसे वश में नहीं हुआ पिशाच साधक को मार डालता है, इसी प्रकार शब्दादि विषयों से युक्त हुआ धर्म भी द्रव्यलिंगी का विनाश कर देता है अर्थात् उसको नरक में ले जाता है । टीका - इस गाथा के द्वारा असंयममय जीवन का कुफल बतलाते हुए उक्त मुनिराज फिर कहते हैं कि हे राजन् ! जैसे कोई पुरुष अपने जीवन के लिए कालकूट नाम महाभयंकर विष का पान करता है और अपने बचाव के निमित्त शस्त्र को उलटा पकड़ता है, तथा जैसे कोई विधिपूर्वक मंत्रजापादि के विना हीं किसी पिशाच का आकर्षण करता है परन्तु वे सब काम उसकी रक्षा के बदले उसके विनाश के हेतु बन जाते हैं, ठीक इसी प्रकार शब्दादि विषयों से मिश्रित हुआ धर्म भी इस आत्मा को दुर्गति में ले जाने का कारण बन जाता है। मंत्र का पुरश्चरण किये बिना और विधिपूर्वक साधना के द्वारा वश किये बिना जो कोई साधक किसी भूत या पिशाच को किसी कार्य के निमित्त बुलाता है, परन्तु यदि वह उसके वशीभूत नहीं है तो वह उसी के प्राण ले लेता है । इसलिए साधक को इस प्रकार के कार्य में बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है । इस सारे कथन का अभिप्राय यह है कि असंयममय जीवन इस आत्मा का उपकार करने के बदले अधिक से अधिक अनिष्ट करता है । अब असंयममय जीवन के लक्षण बतलाते हैं । यथा— जे लक्खणं सुविण पउंजमाणो, निमित्तकोऊहलसंपगाढे कुहेडविज्जासवदारजीवी " न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥४५ ॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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