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________________ ६०० ] उत्तराध्ययन सूत्रम् धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहिं चेव । समणा भविस्सामु गुणोहधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ॥१७॥ किं धर्मधुराधिकारे, वा कामगुणैश्चैव । श्रमणौ भविष्यावो गुणौघधारिणौ, बहिर्विहारावभिगम्य भिक्षाम् ॥१७॥ पदार्थान्वयः – धम्मधुराहिगारे-धर्म धुरा के उठाने में धणेण किं धन से क्या है सयणेण वा स्वजनों से क्या वा - और कामगुणेहिंई-काम गुणों से क्या है चेव - 'च' और 'एव' निश्चयार्थक हैं समणा साधु भविस्सामु - होंगे गुणोहधारी - गुणसमूह के धारण करने वाले बर्हि नगर के बाहर विहारा - विहार स्थानों को अभिगम - आश्रित करके भिक्खं भिक्षा लेंगे । धन [ चतुर्दशाध्ययनम् वजनेन मूलार्थ - पिता जी ! धर्मधुरा के उठाने में धन से क्या प्रयोजन १ तथा सगे-सम्बन्धी और विषय भोगों से क्या मतलब ? अतः हम दोनों तो गुणसमूह के धारण करने वाले साधु ही बनेंगे और नगर के बाहर विहार स्थानों का आश्रय लेकर भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करेंगे । टीका - पिता के कथन का उत्तर देते हुए वे दोनों कुमार कहते हैं कि पिता जी ! आपने हम लोगों को जो धन, स्वजन और कामभोगादि पदार्थों का प्रलोभन देते हुए घर में ही रहने की अनुमति दी है उसके विषय में हमारा निवेदन है कि जिन पुरुषों ने धर्मधुरा का उद्वहन करना है अर्थात् धर्म में दीक्षित होना है तो उनको इस धन से क्या प्रयोजन ? तथा स्वजनवर्ग और भोगादि से क्या मतलब ? अर्थात् ये सभी पदार्थ धर्म के समक्ष अत्यन्त १ पूर्वकाल में नगरादि के जो धर्मस्थान होते थे, उनको विहार कहते हैं ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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