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________________ ८७२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [विंशतितमाध्ययनम् सामग्री भी उपस्थित हो, ऐसी दशा में इन सब का त्यागकर कठिनतर संयमवृत्ति के पालन में प्रवृत्त होना कुछ साधारण सी बात नहीं है। अतः इसमें कोई विशिष्ट कारण अवश्य होना चाहिए, जिसके लिए वे मुनि से प्रश्न कर रहे हैं । महाराजा श्रेणिक के उक्त प्रश्न का उक्त मुनिराज ने जो कुछ उत्तर दिया, अब उसका वर्णन करते हैं अणाहोमि महाराय ! नाहो मज्झ न विजई । अणुकम्पगं सुहिं वावि, कंची नाहि तुमे महं ॥ ९ ॥ अनाथोऽस्मि महाराज ! नाथो मम न विद्यते । अनुकम्पकः सुहृद् वापि कश्चित् जानीहि त्वं मम ॥९॥ " पदार्थान्वयः – महाराय ! - हे महाराज ! अणाहोमि - मैं अनाथ हूँ मज्झमेरा नाही - नाथ न विजई - कोई नहीं है वा अथवा अणुकम्पगं - अनुकम्पा करने वाला सुहिं- सुहृद् वि-भी कंची - कोई महं - मेरा नहीं है तुमे-आप नाहि-जानो । मूलार्थ – मुनि कहते हैं - हे महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई भी नाथ नहीं है और न मेरा कोई मित्र है कि जो मेरे ऊपर अनुकम्पा करे, ऐसा आप जानो । टीका- - राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए मुनि ने कहा कि हे राजन् ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाथ नहीं। मेरे ऊपर अनुकम्पा — दया करने वाला मेरा कोई मित्र भी इस संसार में नहीं है। इसलिए मैं संसार को छोड़कर दीक्षित हो गया हूँ । तात्पर्य यह है कि यह मेरे दीक्षित होने का कारण है। यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि महाराजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हुए उक्त मुनिराज ने जो कुछ भी कहा है, वह वक्रोक्ति से कहा है अर्थात् मुनि का जो उत्तर है, वह व्यंग्यपूर्ण है । सम्भव है, उन्होंने इसी रूप में उत्तर देने से राजा का हित समझा हो। कई एक प्रतियों में उक्त गाथा के चतुर्थ पाद का पाठ इस प्रकार देखा जाता है । यथा - 'कंचि नाभिसमेमहं—कंचिन्नाभिसमेम्यहम् ' [ कंचित् सुहृदं वा नाभिसमेमि—न सम्प्राप्नोमि - ] अर्थात् मैं किसी भी योगक्षेम करने वाले मित्र को प्राप्त नहीं हुआ। तात्पर्य यह है
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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