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________________ ८५० ] मृगचर्यां उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ एकोनविंशाध्ययनम् चरिष्यामि, एवं पुत्र ! यथासुखम् । अम्बापितृभ्यामनुज्ञातः, जहात्युपधिं तथा ॥ ८५ ॥ पदार्थान्वयः—— मिगचारियं - मृगचर्या का चरिस्सामि - आचरण करूँगा एवं - इस प्रकार पुत्ता- हे पुत्र ! जहासुहं- जैसे तुमको सुख हो अम्मापिऊहिं - माता - आज्ञा होने पर उबहिं- उपधि को जहाड़-छोड़ दिया तओ पिता की अणुणाओ - अ तदनन्तर दीक्षित हो गया । मूलार्थ - — म मृगचर्या का आचरण करूंगा; हे पुत्र ! जैसे तुमको सुख हो, वैसे करो। इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा होने पर मृगापुत्र ने उपधि को छोड़ दिया, तदनु वह दीक्षित हो गया । के टीका - संयमग्रहण के विषय में माता-पिता से अनेक प्रकार के प्रश्नोत्तर होने के अनन्तर मृगापुत्र ने कहा कि मैं तो अब मृगचर्या का ही आचरण करूँगा । पुत्र वचनों को इन सुनकर माता-पिता ने कहा कि पुत्र ! जैसे तुम्हारी रुचि हो, वैसे करो; हम उसमें किसी प्रकार की भी बाधा उपस्थित नहीं करते। इस प्रकार माता पिता की आज्ञा हो जाने पर मृगापुत्र ने द्रव्य और भावरूप उपधि का परित्याग करके |दीक्षित होने का संकल्प कर लिया । द्रव्य उपधि — वस्त्र आभूषणादि; भाव उपधि— छद्मादि — मायादि, इन दोनों का परित्याग कर दिया । 'येन आत्मा नरके उपध उपधि:' अर्थात् जिससे यह आत्मा नरक में जाय, उसको उपधि कहते हैं। अतः संयम ग्रहण के अभिलाषी को द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार की उपधि का परित्याग कर देना चाहिए । यद्यपि पूर्व की एक गाथा में मृगापुत्र को 'दमीश्वर' कहा गया है परन्तु वह कथन भावसंयम की अपेक्षा से है और यहाँ पर तो द्रव्यलिंग ग्रहण करने की दृष्टि से इस प्रकार कहा गया है। सारांश यह है कि माता-पिता की अनुमति होने पर मृगापुत्र संयमग्रहण करने में सावधान हो गये 1 अब फिर इसी कथन को पल्लवित करते हुए सूत्रकार कहते हैं मिगचारियं चरिस्सामि, सव्वदुक्खविमोक्खणिं । तुब्भेहिं अम्ब! ऽणुण्णाओ, गच्छ पुत्त ! जहासुहं ॥ ८६ ॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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