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________________ [ ८४७ एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । एवं समुट्ठिओ भिक्खू, एवमेव अगए । मिगचारियं चरित्ता णं, उड्डुं पक्कमई दिसं ॥८३॥ एवं समुत्थितो भिक्षुः, एवमेवाऽनेकगः 1 मृगचर्यां चरित्वा, ऊर्ध्वं प्रक्रामते दिशम् ॥ ८३ ॥ , पदार्थान्वयः – एवं - इसी प्रकार समुट्ठिओ-संयम में सावधान हुआ भिक्खू - साधु और एवमेव - इसी प्रकार अणेगए - अनेक स्थानों में फिरने वाला मिगचारियं-मृगचर्या ' को चरित्ता - आचरण करके उड-ऊँची दिसं - दिशा को पक्कमई ई-आक्रमण करता है । मूलार्थ - इसी प्रकार भिक्षु भी संयम में सावधान होकर मृग की भाँति अनेक स्थानों में फिरकर मृगचर्या का आचरण करता हुआ ऊँची दिशा at आक्रमण करता है । टीका - मृगापुत्र कहते हैं कि संयम- क्रिया में सावधान हुआ साधु भी उस मृग की तरह — अर्थात् जैसे रोगादि के आने पर वह उसी जंगल में किसी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ समय व्यतीत करता है और नीरोग होने पर स्वेच्छानुसार भ्रमण करने लग जाता है उसी प्रकार साधु भी रोगादि के आने पर चिकित्सादि से उपराम होकर एक स्थान में स्थित रहे और रोगादि के शान्त होने पर अपनी साधु- वृत्ति के अनुसार भिक्षादि में प्रवृत्त हो जाय । तात्पर्य यह है कि जैसे मृग नाना प्रकार के स्थानों में भ्रमण करके अपने उदर की पूर्ति कर लेता है, उसी प्रकार मुनि भी किसी गृहविशेष के नियम में न आकर, अनेक घरों से भिक्षा लाकर, अपनी क्षुधा को शान्त करने का प्रयत्न करे । इस प्रकार आचरण करने वाला मुनि, ऊर्ध्वदिशा — मोक्ष - के लिए पराक्रम करने वाला होता है । तात्पर्य यह है कि संयम - क्रिया के अनुष्ठान का फल मोक्ष और स्वर्ग ये दो हैं । इनमें संयमशील साधु को उचित है कि वह अपनी संयम - क्रिया को मोक्षप्राप्ति के निमित्त ही उपयोग में लावे, न कि स्वर्गप्राप्ति के लिए । अब इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए फिर कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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