SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४० ] तं ब्रूतोऽम्वापितरौ, छन्दसा नवरं पुनः श्रामण्ये, दुःखं उत्तराध्ययनसूत्रम् [ एकोनविंशाध्ययनम् पुत्र ! प्रव्रज । निष्प्रतिकर्मता ॥७६॥ पदार्थान्वयः -- तं - मृगापुत्र को अम्मापियरो - माता और पिता बिन्तकहने लगे पुत - हे पुत्र ! छंदेणं - स्वेच्छापूर्वक — खुशी से पव्वया - दीक्षित हो जा न वरं - इतना विशेष है पुरा - फिर सामण्णे - संयम में दुक्खं दुःख का हेतु है जो निप्पडिकम्मया - ओषधि का न करना । मूलार्थ - माता-पिता ने कहा कि हे पुत्र ! तू अपनी इच्छा से भले ही दीक्षित हो जा । परन्तु श्रमणभाव में यह बड़ा कष्ट है, जो कि रोगादि के होने पर उसके प्रतीकारार्थ कोई ओषधि नहीं की जाती । टीका — मृगापुत्र के पूर्वोक्त वक्तव्य को सुनकर, उसके माता-पिता ने संयम ग्रहण करने की तो उसको सम्मति दे दी परन्तु संयमवृत्ति में ध्यान देने योग्य एक बात की ओर उन्होंने अपने पुत्र का ध्यान खींचते हुए कहा कि हे पुत्र ! तुम संयमवृत्ति को बड़े हर्ष से अंगीकार कर लो; हम इसमें अब किसी प्रकार का भी विघ्न उपस्थित करने को तैयार नहीं । परन्तु इस श्रमणवृत्ति में एक बात का विचार करते हुए हमारे मन में बहुत खेद होता है । वह यह कि श्रमणवृत्ति में रोग के प्रतिकार का कोई यत्न नहीं अर्थात् रोगादि के हो जाने पर उसकी निवृत्ति के लिए किसी प्रकार की ओषधि नहीं की जाती । इस बात का विचार करने पर हमको बहुत दुःख होता है। क्योंकि संयमव्रत ग्रहण करने के अनन्तर दैवयोग से यदि किसी प्राणघातक रोग का आक्रमण हो जाय, और उसके प्रतिकार के निमित्त किसी ओषधि आदि का उपचार न किया जाय तो सद्यः शरीरपात की संभावना रहती है । अतः रोग के आक्रमण में किसी प्रकार के उपचार को स्थान न देना हमें अवश्य कष्टदायक प्रतीत होता है । मृगापुत्र के माता-पिता का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि सम्भवतः संयमवृत्ति में उपस्थित होने वाली इस कठिनाई को ही ध्यान में लेकर वह कुछ समय और अपने विचारों को स्थगित रखने में सहमत हो जाय। इसके अतिरिक्त इतना अवश्य स्मरण रहे कि इस गाथा में जो रोगादि के उपस्थित होने पर भी साधुवृत्ति में औषधोपचार का निषेध किया है, वह केवल उत्सर्ग मार्ग को अवलम्बन करके किया है। जैन - सिद्धान्त
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy