SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३०] उत्तराध्ययनसूत्रम् - [ एकोनविंशाध्ययनम् " विदंशकैर्जालैः गृहीतो लग्नो बुद्धश्च, लेप्याभिः शकुन इव । मारितश्चाऽनन्तशः ॥६६॥ पदार्थान्वयः – वीदंसएहिं – श्येनों के द्वारा जालेहि-जालों के द्वारा लेप्पाहिंश्लेषादि द्रव्यों के द्वारा सउणो - शकुन पक्षी विव- की तरह गहिओ - गृहीत किया. - और लग्गो-लेषादि के द्वारा पकड़ा गया — चिपटाया गया य-और बद्धो-जालादि में बाँधा गया य-तथा मारियो - मारा गया अनंतसो - अनन्त वार । मूलार्थ - श्येनों द्वारा, जालों द्वारा और श्लेषादि द्रव्यों के द्वारा पक्षी की तरह मैं गृहीत हुआ, चिपटाया गया, बाँधा गया और अन्त में मारा गया; एक वार ही नहीं किन्तु अनेक वार । टीका- जो लोग स्वच्छन्द विचरने वाले निरपराध पक्षियों को पकड़ने के लिए अनेक प्रकार के उपायों का आयोजन करते हैं अर्थात् श्येन - बाज – आदि के द्वारा, जाल आदि के द्वारा और लेप आदि के द्वारा पक्षियों को पकड़ते हैं, फँसाते हैं, बाँधते और मारते हैं, उन पुरुषों को नरकस्थानों में जाकर स्वयं भी इसी प्रकार का दृश्य देखना पड़ता है अर्थात् उनको भी इन पक्षियों की तरह वध और बन्धन की कठोर यातनाओं का अनुभव करना पड़ता है। जिसका कि वर्णन मृगापुत्र अपने माता-पिता के समक्ष कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार कबूतर आदि भोले पक्षियों को पकड़ने के लिए श्येन- — बाज— को पाला जाता है और जाल आदि बिछाये जाते हैं तथा बुलबुल आदि पक्षियों को पकड़ने के लिए श्लेषादि द्रव्यों का उपयोग किया जाता है । तात्पर्य यह है कि इन उपायों से पक्षियों को पकड़कर उन्हें कष्ट पहुँचाया जाता है और उनका वध किया जाता है, ठीक उसी प्रकार नरकस्थान 1 यमपुरुषों ने मेरे साथ किया अर्थात् श्येन - बाज का रूप धारण करके मुझे पकड़ा तथा जालादि में फँसाकर मुझे अत्यन्त दुःखी किया और अन्त में मार डाला । वह भी एक बार नहीं किन्तु अनेक वार । यहाँ पर स्मरण रखने योग्य बात यह है कि जहाँ मृगापुत्र अपनी अनुभूत नरकयातनाओं का वर्णन करते हैं, वहाँ पर उन्होंने मनुष्यभव में आये हुए प्राणी के हेय और उपादेय का भी अर्थतः दिग्दर्शन करा दिया है, जिससे कि विचारशील पुरुष अपना सुमार्ग सरलता से निश्चित कर सकें । क्योंकि इस जीव ने सर्वत्र स्वकृत कर्मों के ही फल का उपभोग करना है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy